आज हम गीता के सर्वाधिक श्रुत और प्रसिद्ध श्लोक yada yada hi dharmasya- यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत की व्याख्या शब्दार्थ सहित करेंगे। साथ ही भगवतगीता की प्रमुख शिक्षाओं के विषय में जानेंगे।
विषय सूची
यदा यदा ही धर्मस्य श्लोक – yada yada hi dharmasya lyrics
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

श्लोक संदर्भ
यह दो श्लोक वेद व्यास जी के द्वारा रचित विश्व के सबसे बड़े महाकाव्य महाभारत के युद्ध पर्व में अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा दिये गए गीता के उपदेश के अंतर्गत वर्णित हैं।
गीता के उपदेशों के सार्वभौमिक दार्शनिक महत्व के कारण उन्हें एक पृथक ग्रंथ में संकलित किया गया। जिसे श्रीमद्भागवत गीता का नाम दिया गया।
“यदा यदा ही धर्मस्य” श्लोक गीता के चौथे अध्याय के सातवें और आठवें श्लोक हैं।
yada yada hi dharmasya meaning- श्लोक का अर्थ
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
अर्थ- हे अर्जुन! जब जब संसार में धर्म की हानि (ह्रास) होती है। तब तब धर्म के उत्थान (वृद्धि) के लिए मैं अवतार लेता हूँ।
शब्दार्थ
यदा- जब
हि- भी
धर्मस्य- धर्म की
ग्लानि: – हानि
भवति- होती है
भारत- अर्जुन, संसार
अभ्युत्थानम- वृद्धि
अधर्मस्य- अधर्म की
तदा – तब
आत्मानं – स्वयं को
सृजामि – प्रकट (सृजन) करता हूँ।
अहम – मैं
श्लोक की विस्तृत व्याख्या
कुरुक्षेत्र में महाभारत के युद्ध से पूर्व अर्जुन ने जब अपने विरुद्ध स्वजनों, गुरुजनों, संबंधियों को युद्ध के लिए तैयार देखा तो उसने मोह और सांसारिक माया के वशीभूत होकर युद्ध से मना कर दिया।
तब योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा, परमात्मा, एवं इस ब्रम्हांड के संचालन का अत्यंत गोपनीय गीता का ज्ञान प्रदान किया। इसी श्रीमद्भागवत गीता के चतुर्थ अध्याय के सातवें श्लोक में भगवान अर्जुन को बताते हैं कि-
जब जब संसार में पाप और अधर्म बढ़ता है। लोग अन्याय एवं गलत कार्यों में रत हो जाते हैं। ईश्वर और धर्म (सद्कार्य) के प्रति निष्ठा समाप्त होने लगती है। तब इस संसार में अधर्म को रोकने और धर्म को फिर से वृद्धि प्रदान करने के लिए मैं अवतरित होता हूँ।
श्लोक 2 का अर्थ- yada yada hi dharmasya hindi
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
अर्थ- सज्जनों की रक्षा के लिए, दुष्टों के विनाश के लिये और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में अवतार लेता हूँ।
शब्दार्थ
परित्राणाय- रक्षा के लिए, उद्धार
साधूनां – सज्जनों की
विनाशाय – नाश के लिए
च – और
दुष्कृताम- बुरे कर्म करने वाले, पापी
धर्मसंस्थापनार्थाय – धर्म की स्थापना के लिए
संभवामि- अवतार लेता हूँ
युगे-युगे – हर युग में, कालखंड में
विस्तृत व्याख्या
आगे आठवें श्लोक में भगवान कृष्ण कहते हैं कि ऐसे समय में ईश्वर में विश्वास रखने वाले, सद्कार्य करने वाले सज्जन पुरुषों की दुष्टों से रक्षा और पापियों, अधर्मियों और दुष्टों के संहार के लिए हर कालखंड में, हर युग में अवतार लेता हूं। मैं धर्म के प्रति लोगों के अविश्वास को दूर करता हूँ
अपने कार्यों, उपदेशों आदि के द्वारा लोगों के विश्वास को धर्म के प्रति पुनर्जाग्रत करके लोगों के हृदय में धर्म की स्थापना करता हूँ।
गीता की प्रमुख शिक्षाएं
1- केवल कर्म करना ही तुम्हारे अधिकार में है, उसका फल नहीं। इसलिए फल की चिंता छोड़कर केवल कर्म करो।
2- ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग में गृहस्थों के लिए कर्मयोग ही सर्वोत्तम है।
3- आत्मा न पैदा होती है, न मरती है। केवल शरीर बदलता रहता है। इसलिए इस शरीर से आसक्ति मत करो।
4- जो पैदा हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है। मृत्यु के पश्चात जन्म निश्चित है। यह निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। इसलिए मोह मत करो।
5- सुख-दुख, लाभ-हानि, मान-अपमान में जो सम रहता है। वही बुद्धिमान और सच्चा योगी है।
6- अच्छे या बुरे प्रत्येक कर्म का फल निश्चित है। परन्तु कब मिलेगा, यह प्रकृति या ईश्वर तय करता है।
7- मन चंचल है, अनेक प्रकार के पापों का कारण है। इसलिए अपने मन को वश में करके सद्विचारों में संलग्न करो।
8- सब जीवों को अपने समान समझना श्रेष्ठ योगी के लक्षण हैं।
9- इन सांसारिक वस्तुओं से मोह निरर्थक है। क्योंकि इस जन्म में यह तुम्हारी हैं। अगले जन्म में किसी और की होंगी। उससे पहले किसी दूसरे की थीं।
10- इस संसार में एक अभिनेता की भांति व्यवहार करो। जैसे एक अभिनेता अपने पात्र को पूरी ईमानदारी और तल्लीनता से निभाता है। किंतु उसमें आसक्त नहीं होता।
11- भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं जो अनन्य भाव से केवल मेरा चिंतन और मेरी उपासना करते हैं। उनके योग क्षेम का वहन मैं स्वयं करता हूँ।
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