व्रत के नियम | VRAT KE NIYAM
व्रत के नियम क्या हैं? व्रत या उपवास कैसे रहना चाहिये? किन किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? क्या करने से व्रत भंग हो जाता है? किसे व्रत रखना चाहिए और किसे नहीं? व्रत में क्या खाना चाहिए और क्या नहीं? व्रत कबशुरू करना चाहिए?
ऐसे बहुत से प्रश्न लोगों के मन में उठते रहते हैं। अगर आप के मन में भी यह प्रश्न आते हैं तो आप इस लेख को पूरा पढ़िए। इसमें आप को व्रत एवं उससे संबंधित सभी प्रश्नों के उत्तर शास्त्रों के संदर्भ के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। व्रत के सामान्य नियम क्या हैं? जो सभी व्रत में लागू होते है। इस लेख को पढ़ने के बाद व्रत के विषय में आपके सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे।
व्रत क्या है?
सामान्य भाषा में व्रत का अर्थ संकल्प है। जब हम दृढ़ निश्चय करके किसी कार्य को करने का संकल्प करते हैं, तो उसे व्रत लेना कह सकते हैं। व्रत या उपवास में भी हम कुछ नियमों के पालन का संकल्प लेते हैं। जिन्हें व्रत के नियम कहते हैं। वस्तुतः व्रत हठयोग का एक रूप है। जिसमें हम हठ करते हैं कि आज हम ऐसा आचरण करेंगे।
व्रत के प्रकार
व्रत की प्रकृति के आधार पर इन्हें चार भागों में बांटा जा सकता है। यथा- एकभुक्त, नक्त, अयाचित, उपवास और व्रत।
- एकभुक्त– जब व्यक्ति एक बार केवल दोपहर में किसी एक ही प्रकार के अन्न का सेवन कर के रहता है। तो वह एकभुक्त कहलाता है।
- नक्त– प्रदोषकाल अर्थात संध्या के समय एकबार भोजन करना नक्त कहलाता है।
- अयाचित– बिना मांगे जो भी मिल जाय, उसे खाकर रहना अयाचित की श्रेणी में आताहै।
- उपवास– दिन और रात्रि में भोजन का निषेध अर्थात बिना भोजन के रहना, उपवास कहलाता है।
- व्रत– जब उपवास में पूजा पाठ, मन्त्र जप, यज्ञ आदि कार्य भी किये जायें, तो उसे व्रत की संज्ञा दी गयी है।
व्रत प्रारम्भ का समय
हेमाद्रि नामक ग्रंथ में गार्ग्य ने कहा है कि शुक्रास्त में, गुरु के अस्त होने पर, मलमास में, सूतक होने पर, स्त्रियों के रजस्वला होने पर, भद्रा में, खंडा तिथि ( जब सूर्योदय के समय तो तिथि हो लेकिन मध्याह्नकाल में तिथि न हो) में नए व्रत का प्रारम्भ या किसी व्रत का उद्यापन नहीं करना चाहिए।
व्रत किसे रहना चाहिए
स्कन्दपुराण में कहा गया है कि जो मनुष्य अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार आचरण में रत है। शुद्ध मन का है, लालची नहीं है। सत्यवादी और परोपकारी है। उसका सब व्रतों पर अधिकार है। अन्यथा यह व्यर्थ का परिश्रम ही है।
एक बहुत ही विवाद का विषय है कि स्त्रियों अथवा किसी वर्ण विशेष को व्रतों को करने का अधिकार है कि नहीं। व्रत के नियम के अंतर्गत ऐसा कहीं उद्धृत नहीं है। कूर्म पुराण में एक विवरण है कि “हे द्विजोत्तम ! ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि जो यज्ञ, दान, समाधि, उपवास, नियम, होम, स्वाध्याय और तर्पण द्वारा महादेव का अर्चन करते हैं, उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है।”
महाभारत में भी कहा गया है- ” हे कौन्तेय! जो पापयोनियों में पैदा हुए जीव हैं। जो स्त्री, पुरुष और शूद्र हैं। वे सब मेरी उपासना से परमगति को प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि व्रत करने का अधिकार सभी को है। स्त्री आदिके लिए यद्यपि कुछ नियम भी हैं जिनका वर्णन आगे किया जाएगा।
व्रत के नियम
यहां बताए गए नियम सामान्य नियम हैं। जो प्रायः सभी व्रतों में लागू होते हैं। जो इस प्रकार हैं-
- व्रत में बार बार फलाहार नहीं करना चाहिए।
- दिन में सोना नहीं चाहिए।
- ब्रम्हचर्य का पालन करना चाहिए।
- क्रोध नहीं करना चाहिए।
- झूठ नहीं बोलना चाहिए।
- शारीरिक एवं मानसिक स्वच्छता का पालन करना चाहिए।
- व्रत से संबंधित देवता का मंत्र जप, पूजा, ध्यान करना चाहिए।
- व्रत में जिसका अन्न खाया जाता है, व्रत का फल उसे ही मिलता है।
व्रत से संबंधित कुछ विशेष नियम
- वैश्य और शूद्र वर्ण के लिए दो रात्रि से अधिक उपवास की विधि नहीं है।क्योंकि दोनों वर्णों के कार्य समाजोपयोगी एवं श्रमसाध्य हैं। अतएव उपवास से उनके कर्म में बाधा न उत्पन्न हो कदाचित इसी कारण से इस नियम का प्रतिपादन किया गया होगा।
- मार्कण्डेय पुराण में लिखा है कि जो सधवा स्त्री अपने पति की आज्ञा के बिना व्रत या उपवास करती है तो उनका फल उसे प्राप्त नहीं होता।
- स्कन्दपुराण में वर्णन आया है कि स्त्रियों को पति से पृथक पूजा, उपवास आदि करने की आवश्यकता ही नहीं है। यदि वह पति एवं परिवार के दायित्वों का समुचित निर्वहन कर रही हैं। तो पति द्वारा किये व्रत, पूजा आदि का आधा फल उन्हें स्वतः ही प्राप्त हो जाता है।
- शंख ने लिखा है- ” पति की आज्ञा से स्त्री व्रत, पूजा, अनुष्ठान आदि का सम्पादन कर सकती हैं।” यज्ञों में स्त्रियों के निषेध के विषय में उन्होंने स्पष्ट किया है कि चूंकि यज्ञ करने वाले यजमान का वेदपाठी होना आवश्यक है। उपनयन संस्कार न होनेके कारण स्त्रियां वेद पाठ नहीं कर सकतीं। इसलिए उन्हें यज्ञ करना मना है
- अगर दो व्रत एक के बाद एक हों तो ऐसी स्थिति में बिना पारण किये दूसरा व्रत शुरू नहीं करना चाहिए। अगर कुछ खाकर पारण करना सम्भव न हो तो जल पीकर ही पारण कर लेना चाहिए।
- प्रारम्भ किये व्रत के बीच में सूतक हो जाय या स्त्रियां रजस्वला हो जाएं तो व्रत स्वयं रहें परन्तु पूजा पाठ किसी दूसरे से कराएं। ऐसा व्रत के नियम में वर्णन है।
- अगर एक ही दिन दो परस्पर विरोधी व्रत पड़ें तो एक स्वयं रहें और दूसरा किसी और से कराएं।
- बीमारी अथवा अन्य किसी कारण से आरम्भ किये व्रत के पालन में अक्षम होने पर व्रत को प्रतिनिधि के द्वारा कराने का नियम है। ये प्रतिनिधि माता, पिता, पति, पत्नी, पुत्र, मित्र या पुरोहित हो सकते हैं। पुत्र के निमित्त माता पिता व्रत करते हैं तो पुत्र के साथ साथ उन्हें भी फल प्राप्त होता है।
अगर गहराई से देखें तो स्त्रियों एवं वर्ण विशेष के सम्बन्ध में बनाये गए निषेधात्मक नियम उनके कर्म की जटिलता, महत्ता एवं श्रमसाध्यता के कारण हैं। जैसे स्त्रियों को व्रत करने या न करने के विकल्प के पीछे मुख्य कारण यह है कि उनके दैनिक जीवन के कार्य इतने श्रमसाध्य और समय लेने वाले हैं कि उन्हें पूजा पाठ या व्रत के लिए समय मिलना कठिन है।
व्रत भंग होने के कारण एवं प्रायश्चित
क्रोध, मिथ्या भाषण, हिंसा, मैथुन, अन्न ग्रहण, मांसाहार, रोना आदि कारणों से व्रत भंग हो जाता है। विष्णु रहस्य में लिखा है कि अन्न का दर्शन, स्मरण, गन्ध का आस्वादन, वर्णन एवं खाने की इच्छा से व्रत भंग हो जाता है। उबटन लगाना, सर में तेल लगाना, पान खाना, शहद का सेवन,सुगन्धित पदार्थ लगाना भी व्रतभंग के कारण हैं। पतित, पाखंडी और अपवित्र से मिलना स्पर्श एवं बात करने से भी व्रत भंग हो जाता है।
सौभाग्यवती स्त्रियों को श्रृंगार करने से दोष नहीं लगता। अगर किसी कारण से व्रत भंग हो जाय तो उसके निमित्त प्रायश्चित करना चाहिए। प्रायश्चित के विषय में विष्णु पुराण में लिखा है कि पतितों के दर्शन या बातचीत के बाद सूर्य भगवान के दर्शन से प्रायश्चित हो जाता है।
मदनरत्न ग्रंथ में लिखा है संकल्प लेने के बाद व्रत न करने से मनुष्य महापाप का भागी होता है। अगले जन्म में पशु योनि को प्राप्त होता है। हेमाद्रि ग्रंथ में स्कान्द का प्रमाण है कि बीमारी, गुरु की आज्ञा, किसी जीव के भय आदि के कारण यदि व्रत भंग हो जाय तो उसका दोष नहीं लगता है।
प्रायश्चित के विषय में गरुण पुराण में लिखा है कि यदि प्रमादवश व्रत भंग हो जाय तो प्रायश्चित स्वरूप सिर का मुंडन करना चाहिए। यदि यह संभव न हो तो तीन दिन भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए। यह भी न हो सके तो एक हजार गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए। यह भी करने में असमर्थ होने पर एक ब्राम्हण को भोजन अथवा भोजन के निमित्त धन देना चाहिए।
व्रत करने की विधि
महाभारत में व्रत विधि का संछिप्त वर्णन इस प्रकार किया है-
व्रत से पूर्व की रात्रि में व्रती को भूमि शयन करना चाहिए। व्रत के दिन प्रातः सूर्योदय से पूर्व उठकर नित्यकर्मों से निवृत्त होकर स्नान करके हाथ में तांबे के पात्र में जल लेकर संकल्प करना चाहिए। तांबे का पात्र उपलब्ध न होने की दशा में हाथ में जल लेकर मैं अमुक नाम अमुक गोत्र आज अमुक दिन अपनी अमुक मनोकामना कि पूर्ति हेतु अमुक व्रत करने का संकल्प लेता हूँ। यह कहकर जल जमीन पर छोड़ दें। यहां अमुक की जगह अपना नाम, गोत्र, दिन आदि उच्चारण करना है। सूर्य भगवान एवं देवताओं को नमस्कार कर व्रत का प्रारम्भ करे।
व्रत के देवता की पूजा, मन्त्र जप, उनके निमित्त हवन एवं दान आदि कर्म विधि पूर्वक संपादित करें। रात्रि में भूमि शयन करे। भूमि शयन सम्भव न हो तो लकड़ी के तख्त पर सोये। दूसरे दिन पारण करने तक व्रत के नियमों का पालन करे। यदि सम्भव हो तो ब्राम्हण को भोजन कराके व्रत का पारण करे। यही सामान्य नियम है।
निष्कर्ष
वैसे तो व्रत के विधान बहुत कठिन एवं पूर्व के समय के अनुसार परिभाषित हैं। तथापि मैंने सरलतम विधि एवं नियमों का वर्णन करने का प्रयत्न किया है। जोकि सर्वसाधारण के लिए ग्राह्य हो सकें।
वैसे भी देवोपासना में क्रियाविधि की अपेक्षा भाव एवं श्रद्धा को अधिक महत्व दिया गया है। कहा भी गया है- भावग्राही जनार्दनः। अस्तु मुख्य भाव भगवान के प्रति भाव प्रदर्शन एवं श्रद्धा अर्पण ही है।
अतः मेरे मत से यदि आप कोई नियम किसी अक्षमता के कारण (ध्यान रहे प्रमादवश नहीं ) पालन करने में असमर्थ हैं। तो ईश्वर से क्षमा मांग लें। आपको कोई दोष नहीं लगेगा और ईश्वर भी आपके व्रत, पूजा पाठ आदि को सहर्ष स्वीकार करेंगे।
आगे व्रत के नियम की इस श्रृंखला में सभी व्रतों के नियम एवम कथा अलग अलग लेख के माध्यम से पठन हेतु प्राप्त होगी। अतः आपसे अनुरोध है कि नीचे सब्सक्राइब बॉक्स में अपना ईमेल आईडी लिखकर ब्लॉग को सब्सक्राइब अवश्य करें। जिससे नई पोस्ट का नोटिफिकेशन आपको ईमेल के माध्यम से प्राप्त हो सके।
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