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varsha ritu- वर्षा ऋतु पर निबंध

by staff

इस समय बरसात का मौसम है। इसलिए आज हम आपके लिए varsha ritu- वर्षा ऋतु पर निबंध लेकर आये हैं। इसे आप वर्षा ऋतु का साहित्यिक, धार्मिक एवं लौकिक आधार पर विश्लेषण भी समझ सकते हैं।

varsha ritu- वर्षा ऋतु पर निबंध

प्रस्तावना

सामान्यतः लोक में तीन ऋतुओं का प्रचलन है- शरद (जाड़ा), ग्रीष्म (गर्मी), वर्षा (बरसात)। परन्तु भारतीय परंपरा में छह ऋतुएं मानी गयी हैं- शरद, हेमंत, शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा।

उपरोक्त सभी ऋतुओं की अपनी अपनी विशेषताएं है। तथापि समस्त ऋतुओं में वर्षा ऋतु एवं वसंत ऋतु को साहित्य में सर्वाधिक महत्व दिया गया है। आज हम वर्षा ऋतु के विषय में अध्ययन करेंगे।

varsha ritu-वर्षा ऋतु का परिचय

बरसात, बारिश, पावस आदि वर्षा के ही नाम हैं। भारतवर्ष में 15 जून से 15 अक्टूबर तक का समय वर्षा ऋतु के अंतर्गत आता है। हिंदी महीनों में यह आषाढ़ मास से लेकर क्वार तक माना जाता है।

प्रत्येक वर्ष 1 जून के आसपास मानसूनी हवाएं केरल के समुद्र तट से टकराती हैं और धीरे धीरे पूरे भारत में मानसूनी वर्षा के रूप में फैल जाती हैं।

वर्षा ऋतु का महत्व

ग्रीष्म ऋतु की अग्निमय अहंकारी सूर्यरश्मियाँ जब समस्त चराचर को जलाकर क्षार कर देने को प्रयत्नशील होती हैं। तब अखिल चराचर के त्राणकर्ता के रूप में पावस ऋतु का आगमन होता है।

वर्षा की सुधामय फुहारें समस्त जड़-चेतन के विदग्ध तन- मन पर चंदन लेप के समान शीतलकारी होती हैं। ये अमृत बूंदें म्लान वनस्पतियों को उसी प्रकार पुनर्जीवित कर देती हैं। जैसे- राम- रावण युद्ध के बाद इंद्र ने अमृत वर्षा करके रामादल के सैनिकों को पुनर्जीवित कर दिया था-

सुधा बरसि कपि भालु जिआए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए।।

ग्रीष्म ऋतु में जो धरती उजाड़, अनुर्वरा एवं सौन्दर्यविहीन दृष्टिगत होती है। वह वर्षा ऋतु में हरित परिधान धारण कर रमणी नायिका के समान प्रतीत होती है। धरती का यह सौंदर्य प्राकृतिक सुषमा के रसिकों एवं कवियों के लिए रचनात्मक उद्दीपक का कार्य करता है।

लौकिक व्यवहार में वर्षा ऋतु की उपयोगिता

जनसामान्य के लिए वर्षा बहुत उपयोगी है। धरती का अन्नदाता किसान वर्षा की उसी प्रकार प्रतीक्षा करता है जिस प्रकार रुग्ण व्यक्ति औषधि का। आज से पचास वर्ष पूर्व जब खेतों की सिंचाई का एकमात्र साधन प्राकृतिक वर्षा ही थी। तब वर्षा के देवता इंद्र की पूजा की जाती थी।

क्योंकि तब पूरा फसलचक्र वर्षा पर ही निर्भर था एवं उसी के अनुसार समयसारिणीबद्ध था।

वर्षा से तालाब, पोखर आदि भर जाते हैं, जोकि वर्ष के अधिकांश समय तक जीव जंतुओं हेतु पेयजल का स्रोत बनते हैं।

साथ ही भूमिगत जल का स्तर भी बढ़ता है। नए-नए पेड़- पौधे और वनस्पतियां उगती हैं। जोकि न केवल प्राकृतिक सुषमा को बढ़ाती हैं बल्कि जनसामान्य के लिए बहुत उपयोगी होती हैं।

वर्षा ऋतु की प्रथम बारिश का पानी कई रोगों की औषधि माना जाता है। यही नही इस ऋतु के सावन माह को ग्रामीण अंचल में त्योहार की भांति मनाया जाता है। बारिश की फुहारों के बीच नीम की डाल पर लोकगीतों की लय पर झूले का आनन्द लेती ग्राम्यबालाओं की टोली वर्षा ऋतु के महत्व का सजीव चित्रण है।

वर्षा ऋतु का धार्मिक महत्व- varsha ritu

धार्मिक ग्रंथों में भी वर्षा ऋतु का विशेष महत्व है। इस ऋतु के चार महीनों- आषाढ़, सावन (श्रावण), भादों (भाद्रपद), क्वार (आश्विन) को चातुर्मास के नाम से जाना जाता है। इन चार महीनों में सन्यासी, परिव्राजकों के लिए भ्रमण निषिद्ध था।

इन चार महीनों को साधनाकाल के रूप में जाना जाता है। मनुस्मृति एवं मत्स्य पुराण के अनुसार इस समय उन्हें एक स्थान पर एकत्रित होकर रहने का धर्मादेश है। पावस काल में वे एकत्रित होकर एक दूसरे से सम्पर्क करें और ज्ञान का आदान प्रदान करें।

इसी काल में श्रावणी पर्व भी मनाया जाता है। जिसमें मनुष्यों को वेदपाठ करने का नियम धर्मग्रंथों में बताया गया है। इस ऋतु के प्रमुख त्योहारों में नागपंचमी, रक्षाबंधन और कृष्ण जन्माष्टमी प्रमुख हैं।

साहित्य में वर्षा ऋतु का महत्व

हिंदी एवं संस्कृत साहित्य में वर्षा ऋतु का वर्णन अन्य ऋतुओं की अपेक्षा अधिक हुआ है। कहीं विरहिणी नायिका के आंसुओं की तुलना बारिश से की गई है तो दूसरी ओर वर्षा को प्रेमी प्रेमिका के लिए प्रेम के उद्दीपक के रूप में भी चित्रित किया गया है।

कहीं ज्ञान एवं लोक व्यवहार की शिक्षा का माध्यम वर्षा ऋतु को बनाया गया है। गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस में वर्षा ऋतु के माध्यम से सुंदर उपमाएं प्रस्तुत की गई हैं। किष्किंधाकांड में श्रीरामचंद्र जी वर्षा ऋतु के विषय में लक्ष्मण जी को बताते हैं-

कहत अनुज सन कथा अनेका।
भगति बिरत नृपनीति बिबेका॥
बरषा काल मेघ नभ छाए।
गरजत लागत परम सुहाए॥
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं।
जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना।
जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं।
कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं॥
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा।
जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई।
बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका।
साधक मन जस मिलें बिबेका॥
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा।
जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जोई।
होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥

भावार्थ– श्रीरामचंद्र जी गुफा में बैठकर लक्ष्मण जी को विभिन्न प्रकार की कथाएं सुना रहे हैं। वे कहते हैं कि वर्षा ऋतु आ गयी है। आकाश में बादल छा गए हैं और गरजते हुए बहुत सुंदर लग रहे हैं।

भारी बारिश खेत की मेड़ों को तोड़ कर निकल रही है। जिस प्रकार स्त्री स्वतंत्र होकर बिगड़ जाती हैं। जो चतुर किसान हैं वे खेत की घास फूस को साफ कर रहे हैं। जिस प्रकार बुद्धिमान लोग अहंकार आदि दुर्गुणों का त्याग कर देते हैं।

चक्रवात पक्षी उसी प्रकार नहीं दिखाई पड़ते हैं। जिस प्रकार कलियुग में धर्म नहीं दिखाई पड़ता। वर्षा होने के बाद भी ऊसर भूमि में एक तिनका भी नहीं उपजता। जिस प्रकार भक्तों के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता।

मेढकों की ध्वनि चारों दिशा से आती हुई सुहावनी लग रही है। जैसे बटुकों का समुदाय वेदपाठ कर रहा हो। साधकों के मन में जिस प्रकार विवेक बढ़ता है। उसी प्रकार पेड़ों पर नए नए पल्लव पैदा हो रहे हैं।

तालाब वर्षा जल को उसी प्रकार संग्रहीत कर रहे हैं। जिस प्रकार सज्जन लोग सद्गुण संग्रहीत करते हैं। नदियों का जल समुद्र में उसी प्रकार एकात्म हो जाता है। जैसे ईश्वर प्राप्ति के बाद जीव उसी में समाहित हो जाता है।

उपर्युक्त चौपाइयों में तुलसीदासजी ने जो उपमाएं दी हैं, वे अन्यत्र दुर्लभ हैं। इसी प्रकार संस्कृत के महाकवि कालिदास जी ने वर्षा ऋतु एवं प्राकृतिक सुषमा का जो वर्णन किया है। वैसा किसी भी साहित्य में नहीं मिलता है।

मेघदूत के प्रथम भाग पूर्वमेघ में यक्ष के माध्यम से महाकवि कालिदास ने बादलों एवं वर्षा ऋतु का जो मनोरम चित्रण किया है, वह अद्वितीय है। एक स्थान पर यक्ष बादलों से कहता है-

“जब तुम आकाश में उमड़- घुमड़ कर छाओगे तो जिन स्त्रियों के पति विदेश में हैं। वे बड़ी आशा के साथ टकटकी लगाकर तुम्हारी ओर देखेंगी कि अब तो प्रियतम अवश्य आएंगे।“मेघदूतम

वहीं वर्षा हो जाने के बाद का माहौल कैसा होगा, इसका भी विस्तृत वर्णन है-

कदम्ब के फूलों को भौंरें मस्ती में निहारेंगे। वर्षा के पहले जल से फूली हुई कंदली को हिरन सुखपूर्वक खा रहे होंगे। हाथी पहले जल से भीगी हुई धरती की सोंधी खुशबू सूंघ रहे होंगे।”मेघदूतम

वैदिक ग्रंथों के अंतर्गत ऋग्वेद में पार्जन्य सूक्त, मांडूक्य सूक्त और अथर्ववेद में वृष्टि सूक्त और प्राण सूक्त आदि वर्षा पर आधारित हैं।

ब्राम्हण ग्रंथों में भी वर्षा का बृहद वर्णन है। इस ऋतु का सर्वाधिक वर्णन शतपथ ब्राह्मण में किया गया है। शतपथ में वर्षा की उत्पत्ति के संबंध में कहा गया है कि-

“प्रजापति ने सूर्य से आंखों की रचना की और फिर आंखों के द्वारा वर्षा का निर्माण किया।”शतपथ

इसके अतिरिक्त तैत्तरीय संहिता के उवट भाष्य में वर्षा की परिभाषा दी गयी है–

“नह्यन्न सूर्यो भाति मेघप्रचुरत्वात् तस्मान्नभो नभस्यश्च।”उवट भाष्य

अर्थात जिस समय आकाश में बादलों की अधिकता होती है, वह वर्षा ऋतु का समय होता है।

वर्तमान युग के कवियों यथा- सुमित्रा नंदन पंत, भवानी शंकर मिश्र, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी आदि अनेक कवियों ने भी वर्षा ऋतु पर कविताएं लिखी हैं।

उपसंहार – varsha ritu

इस प्रकार वर्षा ऋतु सभी ऋतुओं में अग्रणी एवं रसिकजनों के हृदय को मुग्ध करने वाली है। यह ऋतु मनुष्य को कठोर मशीनी जीवन एवं कंक्रीट के जंगलों के कृत्रिम संसार से परे प्राकृतिक सुषमा एवं ईश्वर के सत्य एवं शाश्वत संसार की ओर आकर्षित करती है।

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