दोस्तों ! आज हम आपके लिए 85+ Tulsidas ke dohe in hindi लेकर आये हैं। इस तुलसीदास के दोहे पोस्ट में रामचरितमानस के रचयिता महाकवि और भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास जी के दोहों का संकलन है।
इन दोहों को रामचरितमानस, दोहावली, कवितावली आदि ग्रंथों से चुना गया है। जो हृदय के अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करते हैं। साथ ही जीवनोपयोगी शिक्षा भी प्रदान करते हैं।
तुलसीदास जी का संछिप्त परिचय
जन्म समय – संवत 1554 श्रावण शुक्ल सप्तमी
जन्म स्थान – ग्राम – राजापुर, चित्रकूट
माता- पिता – आत्माराम दुबे, हुलसी देबी
गुरु – नरहर्यानंद जी, शेषसनातन जी,
पत्नी – रत्नावली
मृत्यु – संवत 1680, श्रावण कृष्ण तृतीया
स्थान – असीघाट, काशी
प्रमुख रचनाएँ – रामचरितमानस, कवितावली, दोहावली, हनुमानबाहुक, हनुमानचालीसा, बजरंगबाण, विनय पत्रिका,
दोहे 1 से 10 #Tulsidas ke dohe in hindi
भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु।।1।।
अर्थ- सज्जन पुरुष सदैव भलाई ही करता है। जबकि नीच व्यक्ति नीचता ही करता है। जैसे अमृत हर स्थिति में अमरता ही देता है। जबकि विष मृत्यु प्रदान करता है।
ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग।।2।।
अर्थ- सूर्य आदि नवग्रह, दवा, जल, हवा, वस्त्र आदि वस्तुएं अच्छे और बुरे समय के अनुसार फल देती हैं। अच्छे समय पर बुरी वस्तु भी अच्छी और बुरे समय पर अच्छी वस्तु भी बुरी हो जाती है। ऐसा बुद्धिमान लोग कहते हैं
बोले बिहसि महेस तब ज्ञानी मूढ़ न कोइ।
जेहिं जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ।।3।।
अर्थ- भगवान शंकर कहते हैं कि न तो कोई मूर्ख है न ज्ञानी। भगवान श्रीराम जब जैसा चाहते हैं वैसा मनुष्य को बना देते हैं।
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपनु आवहि ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ।।4।।
अर्थ- जैसी होनी होती है, उसी के अनुकूल मनुष्य को सहायता मिलती है। या तो वह स्वयं ही उसके पास आ जाती है। यत् फिर उसे उस स्थान तक ले जाती है।
भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम।
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम।।5।।
अर्थ- हे भरद्वाज ! जिस से ईश्वर रूठ जाते हैं। उसके लिए धूल भी पहाड़ कद समान, पिता यमराज के समान और रस्सी भी सांप के समान हो जाती है।
मन्त्र परम् लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब।।6।।
अर्थ- वह मन्त्र (राम नाम) बहुत छोटा है जिसके वश में ब्रम्हा, विष्णु, महेश आदि सारे देवता हैं। जिस प्रकार मतवाले हाथी को वश में रखने वाला अंकुश बहुत छोटा होता है।
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाई रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।7।।
अर्थ- वीर पुरुष मुँह से न कहकर युद्ध में पराक्रम दिखाते हैं। जबकि कायर शत्रु को सामने देखकर अपनी बड़ाई में डींगें हांकते हैं।
पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम् प्रिय सोइ।।8।।
अर्थ- स्त्री, परुष, नपुंसक अथवा इस संसार का कोई भी जीव यदि कपट छोड़कर पूरे भाव से मेरा भजन करता है तो वह मुझे सबसे अधिक प्रिय है।
बिनु गुरु होइ की ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहइ हरि भगति बिनु।।9।।
अर्थ- बिना गुरु के ज्ञान नहीं हो सकता और बिना ज्ञान के वैराग्य नहीं हो सकता। सभी वेद और पुराण कहते हैं कि बिना ईश्वर की भक्ति के सुख नहीं मिल सकता।
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भये सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किये बहु पंथ।।10।।
अर्थ- तुलसीदास जी कहते हैं कि कलियुग में सभी धर्मों का ह्रास हो जाएगा। सभी सदग्रंथ लुप्त हो जाएंगे। पाखंडी लोग अपने लाभ के लिए अपनी बुद्धि से बहुत सारे धर्म चलाएंगे।
दोहे 11 से 20 तक# tulsidas ke dohe in hindi with meaning
असुभ बेष भूषन धरे भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी ते सिद्ध नर पूज्य ते कलियुग माहिं।।11।।
अर्थ- कलियुग की एक और विशेषता बताते हुए तुलसी कहते हैं कि कलियुग में जो अजीब वेशभूषा धारण करते हैं और भक्ष्य अभक्ष्य सब खाते हैं। उन्हीं को योगी और सिद्ध समझा जाता है।
कलियुग सम जुग आनि नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।।12।।
अर्थ- सभी लोग कलियुग को सभी युगों में सबसे नीच मानते हैं। लेकिन बाबा तुलसी कहते है कि कलियुग के समान कोई दूसरा युग नहीं है। अन्य युगों में संसार से तरने के लिए जप तप साधना आदि बहुत कठिन उपाय करने पड़ते हैं। जबकि कलियुग में केवल राम नाम जप करने से ही मनुष्य इस संसार सागर से पार उतर जाता है।
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हे दान करइ कल्यान।।13।।
अर्थ- धर्म के चार चरण होते हैं- सत्य, दया, तप और दान। लेकिन कलियुग में केवल दान की ही प्रधानता है। दान कैसा और किसी भी प्रकार दिया जाय, कल्याण ही करता है।
कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक।।14।।
अर्थ- ब्रम्ह ज्ञान को समझाना और समझना दोनों कठिन है। लेकिन उसकी विवेकपूर्ण साधना तो और भी कठिन है। संयोगवश यदि ब्रम्हज्ञान मिल भी जाय तो उसके पालन में अनेक विघ्न बाधाएं आती हैं।
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।
बिनु हरिकृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान।।15।।
अर्थ- भगवान शंकर कहते हैं कि हे पार्वती सज्जन पुरुषों की संगति के समान कुछ भी लाभप्रद नहीं है। लेकिन वेद और पुराणों का कथन है कि बिना ईशकृपा के सज्जनों की संगति नहीं प्राप्त होती।
ताहि कि सम्पति सगुन शुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम।।16।।
अर्थ- उस व्यक्ति की संपत्ति सुभ नहीं हो सकती और न ही मन को शांति मिल सकती है। जो दूसरों से द्वेष रखता हो और मोह और काम के वश में हो।
प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि।
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि।।17।।
अर्थ- प्रेम और विरोध अपने बराबर वालों से करना चाहिए, नीति ऐसा कहती है। जैसे यदि जंगल का राजा शेर मेढकों का वध करे, तो कोई उसकी प्रसंशा नहीं करेगा।
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
तें नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास।।18।।
अर्थ- जो मनुष्य शिव का भक्त होने का दावा करता है और मुझसे शत्रुता करता है। या मेरा भक्त है और शिव से द्रोह करता है। ऐसा मनुष्य कल्प भर घोर नर्क में वास करता है।
काटेइ पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।19।।
अर्थ- कोई कितना भी प्रयत्न करके सिंचाई करे लेकिन केले का पेड़ काटने से ही बढ़ता है। हे पक्षिराज ! उसी प्रकार नीच व्यक्ति विनय से नहीं मानता। उसे डांटना ही पड़ता है।
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पाँवर पापमय तिन्हहिं बिलोकत हानि।।20।।
अर्थ- तुलसीदास जी कहते हैं कि जो शरण में आये हुए को अपने अहित के डर से त्याग देते हैं। वे मनुष्य महापापी हैं और उनका दर्शन करने से भी हानि होती है।
दोहे 21 से 30 तक# tulsidas ke dohe
सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राजधर्म तन तीनि कर होइ बेगहीं नास।।21।।
अर्थ- मंत्री, वैद्य और गुरु भय के कारण असत्य प्रिय वचन बोलते हैं या चापलूसी करते हैं। तो उनका राज्य (वैभव), धर्म और स्वास्थ्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ।।22।।
अर्थ- हे तात ! काम, क्रोध और लोभ ये तीन दुष्ट बहुत ही बलवान हैं। ये ज्ञान विज्ञान के धनी मुनियों के मन में भी क्षण भर में ही क्षोभ उत्पन्न कर देते हैं।
मुखिआ मुखु सो चाहिए खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक।।23।।
अर्थ- मुखिया को मुख जैसा होना चाहिये। जिस प्रकार मुख खाता पीता तो अकेले है। किंतु पालन पोषण सभी अंगों का करता है।
सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिब होइ।
तुलसी प्रीति की रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ।।24।।
अर्थ- सेवक को अपने स्वामी के हाथ, पैर और आंखों के समान होना चाहिए। अर्थात हाथों से सेवा, पैर से आज्ञापालन हेतु गमन और आंखों से देखभाल करनी चाहिए। स्वामी के मुख से केवल कहने भर से ही सब कार्य कर देना चाहिए। तुलसीदास कहते हैं कि सेवक स्वामी के इस प्रकार के प्रेम की कवि लोग सराहना करते हैं।
तुलसी असमय को सखा धीरज धर्म बिबेक।
साहित साहस सत्यव्रत रामभरोसो एक।।25।।
अर्थ- महाकवि तुलसीदास जी कहते है कि बुरे समय के मित्र धैर्य, धर्म, विवेक, साहस, सत्य और केवल श्रीराम जी का भरोसा ही है।
अनुचित उचित विचारु तजि जे पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन।।26।।
अर्थ- जो पुत्र उचित अनुचित का विचार त्यागकर अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हैं। वे सुख और यश का भोग करके अंत में स्वर्ग में निवास करते हैं।
गो खग खे खग बारि खग तीनों माहिं बिसेक।
तुलसी पीवैं फिर चलैं रहैं फिरैं सॅंग एक।।27।।
अर्थ- धरती, आकाश और जल में निवास करने वाले जीवों में एक विशेषता है कि वे खान पान, चलना और रहना एक साथ करते हैं। मनुष्यों को भी इनसे सीख लेकर वैर भाव भूलकर एक साथ रहना चाहिए।
आपन छोड़ो साथ जब ता दिन हितू न कोइ।
तुलसी अम्बुज अम्बु बिनु तरनि तासु रिपु होइ।।28।।
अर्थ- जिस दिन अपने हितैषी, भाई-बंधु साथ छोड़ देते हैं। उस दिन कोई साथ नहीं देता। जिस प्रकार सूर्य वैसे तो कमल का मित्र है। किंतु कमल के बंधु जल के सूख जाने पर वही सूर्य कमल का शत्रु हो जाता है और अपनी किरणों से उसे जला देता है।
तुलसी भल बरतरु बढ़त निज मूलहिं अनुकूल।
सबहिं भाँति सब कहुँ सुखद दलनि फलनि बिनु फूल।।29।।
अर्थ- तुलसीदासजी कहते हैं कि सबसे अच्छा बरगद का पेड़ है। जो अपनी जड़ों के साथ ही बढ़ता है अर्थात अपने आधार को नहीं भूलता है। साथ ही वह बिना फूले (बिना गर्व किये) अपने पत्तों, फल और छाया से सबको सुख पहुंचाता है।
बरषत हरसत लोग सब करषत लखै न कोई।
juतुलसी प्रजा सुभाग से भूप भानु सो होइ।।30।।
अर्थ- जब सूर्य मेघों के माध्यम से जल बरसाता है, तो सब लोग देखते हैं। लेकिन जब वह नदियों और समुद्र से जल खींचता है। तब कोई नहीं देख पाता। इसी प्रकार राजा को होना चाहिए कि जब वह जनकल्याण के कार्य करे, तो सबको पता चले। लेकिन जब वह प्रजा से कर ले, तो किसी को पता न चले। तात्पर्य यह है कि जनता को कर बोझ न लगे। ऐसा सूर्य के समान राजा बड़े भाग्य से प्राप्त होता है।
दोहे 31 से 40 तक# tulsidas ji ke dohe
जथा अमल पावन पवन पाइ कुसंग सुसंग।
कहिअ कुबास सुबास तिमि काल महीस प्रसंग।।31।।
अर्थ- जैसे अच्छी और बुरी वस्तुओं के साथ मिलने से स्वच्छ और पावन वायु भी सुगन्धित या दुर्गंध युक्त हो जाती है। उसी प्रकार अच्छे और बुरे राजा के प्रभाव से समय भी अच्छा या बुरा हो जाता है।
अधिकारी बस औसरा भलेउ जानिए मन्द।
सुधा सदन बसु बारहें चउथें चउथिउ चंद।।32।।
अर्थ- बुरा समय होने पर भले अधिकारियों को भी बुरा ही समझना चाहिए। जिस प्रकार अमृत बरसाने वाला चन्द्रमा कुंडली में चौथे और बारहवें होने पर भाद्रपद चतुर्थी के दिन देखना हानिकर होता है।
लोगनि भलो मनाव जो भलो होन की आस।
करत गगन को गेन्डुआ सो सठ तुलसीदास।।33।।
अर्थ- जो व्यक्ति अपना भला होने की आशा में लोगों की मां मनौती करता है। वह मूर्ख आकाश को तकिया बनाने का प्रयत्न करता है। क्योंकि इस प्रकार दूसरों का भला करने वाले बिरले ही हैं।
बहु सुत बहु रुचि बहुबचन बहु अचार ब्यवहार।
इनको भलो मनाइबो यह अग्यान अपार।।34।।
अर्थ- जिसके बहुत पुत्र हों, भिन्न भिन्न रुचियां हों। अलग अलग बहुत बातें करता हो। जिसका आचार और व्यवहार बदलता रहता हो। अगर कोई इनको मनाने की सोचे तो वह अज्ञानी है।
जो सुनि समुझि अनीति रत जागत रहै जु सोइ।
उपदेसिबो जगाइबो तुलसी उचित न होइ।।35।।
अर्थ- जो जानबूझकर अनीति करता हो। जो जागते हुए भी सोने का बहाना करता हो। ऐसे अनीतिकर्ता को उपदेश देने और सोते को जगाना उचित नहीं है।
कूप खनत मंदिर जरत आएँ धारि बबूर।
बवहिं नवहिं निज काज सिर कुमति सिरोमनि कूर।।36।।
अर्थ- जो व्यक्ति घर जलने पर कुआं खोदता हो। शत्रु के आक्रमण कर देने पर बबूल के बीज बोता हो। अपना काम पड़ने पर विनम्र होकर सिर झुकाता हो। ऐसा व्यक्ति मूर्खों का शिरोमणि और क्रूर होता है।
पाही खेती लगन बट रिन कुब्याज मग खेत।
बैर बड़ों सो आपने किए पांच दुख देत।।37।।
अर्थ- घर से बहुत दूर की खेती, यात्रियों से प्रेम, अधिक ब्याज पर लिया गया ऋण, रास्ते के किनारे का खेत और अपने से बड़े लोगों से बैर। ये पांचों दुखदायी होते हैं।
दीरघ रोगी दारिदी कटुबच लोलुप लोग।
तुलसी प्रान समान तउ होहिं निरादर जोग।।38।।
अर्थ- लम्बे समय से रोगी, निर्धन, कड़वे वचन बोलने वाला और लालची मनुष्य प्राणों के समान भी प्रिय हो। तब भी सम्मान के योग्य नहीं है।
नगर नारि भोजन सचिव सेवक सखा अगार।
सरस् परिहरें रंग रस निरस बिषाद बिकार।।39।।
अर्थ- नगर, स्त्री, भोजन, सहायक, सेवक, मित्र और घर अगर नीरस या अहितकरक होने वाले हों। तो उनका पहले ही त्याग कर देना उचित है। अन्यथा वे रोग और दुख का कारण बनते हैं।
सिष्य सखा सेवक सचिव सुतिय सिखावन सांचु।
सुनि समझिअ पुनि परिहरिअ पर मन रंजन पाँचु।।40।।
अर्थ- यदि यह सुनने में आये कि अपने शिष्य, मित्र, सेवक, मंत्री और स्त्री दूसरे के मन को खुश करने लगे हैं। तो पहले इसकी जांच करनी चाहिए। यदि जांच में बात सत्य साबित हो तो इनका परित्याग कर देना चाहिए।
दोहे 41 से 50 तक# तुलसीदास के दोहे
तुलसी सो समरथ सुमति सुकृती साधु सयान।
जो बिचार ब्यवहरइ जग खरच लाभ अनुमान।।41।।
अर्थ- तुलसीदास जी कहते हैं कि वही व्यक्ति समर्थ, बुद्धिमान, सत्कार्य करने वाला और सज्जन है। जो लाभ हानि की गणना करके इस संसार में व्यवहार करता है।
लाभ समय को पालिबो हानि समय की चूक।
सदा विचारहिं चारुमति सुदिन कुदिन दिन दूक।।42।।
अर्थ- अवसर मिलने पर काम बना लेना ही लाभ है और सही समय पर चूक जाना ही हानि है। इस बात का बुद्धिमान लोग सदैव ही ध्यान रखते हैं। क्योंकि अच्छा और बुरा समय केवल दो दिन (थोड़े समय) ही रहता है।
जो परि पाँय मनाइए तासों रूठि बिचारि।
तुलसी तहाँ न जीतिए जँह जीतेहउँ हारि।।43।।
अर्थ- सुह्रद और बड़े लोग यदि रूठ जाएं तो उनके पांव पड़कर मना लेना चाहिए। तुलसीदास जी कहते है कि वहां (हितैषियों, सुहृदों से) जीतने का प्रयास नहीं करना चाहिए। जहां जीतना भी हार के समान हो।
हित पर बढ़इ बिरोध जब अनहित पर अनुराग।
राम बिमुख बिधि बाम गति सगुन अघाइ अभाग।।44।।
अर्थ- जब व्यक्ति हितवचन कहने वालों का विरोध करने लगे और अहित करने वालों से प्रेम करने लगे। तो समझ लेना चाहिए कि ईश्वर और विधि का लेख इसके विरुद्ध हो गए हैं और दुर्भाग्य शुरू हो गया है।
परद्रोही परदाररत परधन पर अपवाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद।।45।।
अर्थ- दूसरों से द्वेष करने वाला, पराई स्त्रियों, पराये धन और परनिंदा में रत मनुष्य महापापी और मनुष्य की देह में राक्षस ही हैं।
सरल वक्रगति पंचग्रह चपरि न चितवन काहु।
तुलसी सूधे सूर ससि समय बिडम्बित राहु।।46।।
अर्थ- इस संसार में सीधे लोग ही दूसरों के द्वारा सताए जाते हैं। जैसे नवग्रहों में से पांच ग्रह सीधी और टेढ़ी दोनों चाल चलते हैं। इसलिए राहु केतु उनसे नहीं बोलते। लेकिन सूर्य और चन्द्रमा सीधा चलते हैं, इसलिए राहु उन्हें प्रताड़ित करता है।
पर सुख सम्पति देखि सुनि जरइ जे जड़ बिनु आगि।
तुलसी तिनके भागते चलै भलाई भागि।।47।।
अर्थ- जो लोग दूसरों की सुख, संपत्ति देखकर बिना आग के ही जलने लगते हैं। बाबा तुलसी कहते हैं कि उनके भाग्य से सुख चला जाता है।
होइ भले कें अनभलो होइ दानि के सूम।
होइ कपूत सपूत कें ज्यों पावक में धूम।।48।।
अर्थ- भले लोगों के बुरे और दानी के सूम पैदा होते हैं। यह विधि का खेल है कि कुपुत्र और सुपुत्र उसी प्रकार होते हैं जैसे अग्नि में धुंआ।
सदा न जे सुमिरत रहहिं मिलि न कहहिं प्रिय बैन।
ते पै तिन्ह के जाहिं घर जिन्ह के हिएँ न नैन।।49।।
अर्थ- जो हमेशा याद नहीं करते रहते और मिलने पर प्रेमपूर्ण बातें नहीं करते। उनके यहां वही लोग जाते हैं, जिनके हृदय में सम्मान और अपमान देखने वाली आंखें नहीं होतीं।
अमिअ गारि गारेउ गरल गारि कीन्ह करतार।
प्रेम बैर की जननि जुग जानहिं बुध न गवांर।।50।।
अर्थ- ईश्वर ने अमृत और विष दोनों को निचोड़कर गली की रचना की। यह गाली प्रेम और बैर दोनों की जननी है। इस बात को बुद्धिमान लोग ही जानते हैं, गंवार नहीं।
दोहे 50 से 60 तक # रामायण के दोहे
कै लघु कै बड़ मीत भल सम सनेह दुख सोइ।
तुलसी ज्यों घृत मधु सरिस मिलें महाविष होइ।।51।।
अर्थ- मित्र या तो अपने से बड़ा हो या छोटा। क्योंकि बराबरी का प्रेम तो दुखदायक ही होता है। तुलसीदास जी कहते है कि जैसे घी और शहद को बराबर मात्रा में मिला दिया जाय तो महाविष बन जाता है।
तुलसी अदभुत देवता आशा देबी नाम।
सेयें सोक समर्पई बिमुख भएँ अभिराम।।52।।
अर्थ- तुलसीदास जी कहते है कि एक बड़ी अद्भुत देवी हैं, जिनका नाम आशा देवी है। जिनकी सेवा करने से (आशा रखने से) दुख ही मिलता है और छोड़ देने से आनंद मिलता है।
मनिमय दोहा दीप जँह उर घर प्रगट प्रकास।
तँह न मोह तम भय तमी कलि कज्जली विलास।।53।।
अर्थ- तुलसीदास जी के ये मणिस्वरूप दोहे दीपक की तरह हैं। जो हृदय रूपी घर को प्रकाश से भर देते हैं। जिसके हृदय में इन मणिमय दोहों का प्रकाश होगा। वहां मोह रूपी अंधकार, भय रूपी रात्रि और और कलिकाल रूपी कालिमा का विलास नहीं होगा।
कर्मप्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करइ सो तस फल चाखा।।
अर्थ- यह संसार कर्म प्रधान है। यहां जो जैसा कर्म करेगा, उसको वैसा ही फल प्राप्त होगा।
सठ सुधरहिं सत्संगति पाई।
पारस परस कुधातु सुहाई।।
अर्थ- अच्छी संगति पाकर बुरे व्यक्ति भी सुधर जाते हैं। जिस प्रकार पारस पत्थर के स्पर्श से लोहे जैसी धातु भी सुंदर (सोना) बन जाती है।
जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि ।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि ।।
अर्थ- प्रेम की सुंदर रीति देखिए कि दूध में मिलकर पानी भी दूध के भाव बिकता है। लेकिन जैसे ही उसमें खटाई रूपी कपट का मिश्रण होता है। वैसे ही दूध और पानी अलग-अलग हो जाता है।
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं ।
प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ।।
अर्थ- इस संसार में कोई ऐसा नहीं है। जिसे बड़ा पद या अधिकार पाकर घमंड नहीं हुआ है।
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा ।
जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा ।।
तदपि बिरोध मान जहँ कोई ।
तहाँ गएँ कल्यानु न होई ।।
अर्थ- शिवजी सती से कहते हैं कि यद्यपि मित्र, पिता, स्वामी और गुरु के घर बिना बुलाये भी जाना चाहिए। फिर भी कोई अपना विरोध करता हो या नापसंद करता हो। वहां जाने से कभी कल्याण नहीं होता।
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी ।
बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी ।।
अर्थ- माता-पिता, गुरु और स्वामी की आज्ञा को बिना किसी सोच विचार के मन लेना चाहिए। क्योंकि उनकी उनके वचन यत् आज्ञा सदैव हितकारक ही होती है।
पर हित लागि तजइ जो देही ।
संतत संत प्रसंसहिं तेही ।।
अर्थ- वेदों में परोपकार को सबसे बड़ा धर्म कहा गया है। जो लोग दूसरों के हित के लिए अपने शरीर का त्याग कर देते हैं। संत लोग सदा ही उनकी प्रसंशा करते हैं।
दोहे 61 से 70 तक- Tulsidas ke dohe in hindi
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा ।
लोचन मोरपंख कर लेखा ।।
ते सिर कटु तुंबरि समतूला ।
जे न नमत हरि गुर पद मूला ।।
अर्थ- जिन्होंने अपने जीवन में संतों के दर्शन नहीं किये। उनकी आंखें मोरपंख के समान केवल देखने में ही सुंदर हैं। जो सिर गुरु और ईश्वर के सामने नहीं झुकता, वह कड़वी तूंबी के समान अनुपयोगी है।
बातुल भूत बिबस मतवारे ।
ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ।।
जिन्ह कृत महामोह मद पाना ।
तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना ।।
अर्थ- जिन्हें सन्निपात, उन्माद आदि रोग हो। जो भूत-प्रेत के वश में हों। ऐसे लोग बिना सोच विचार के बोलते हैं। जो शराब पिये हों, ऐसे लोगों की कही गयी बातों का ध्यान नहीं देना चाहिए।
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा ।
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ।।
अगुन अरूप अलख अज जोई ।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई ।।
अर्थ- तुलसीदास जी कहते हैं कि सगुण और निर्गुण ब्रम्ह में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं। ऐसा सभी ऋषि, मुनि, पुराण, वेद और ज्ञानी लोग कहते हैं। जो निराकार है, निर्गुण है, अव्यक्त है, अजन्मा है। भक्तों के प्रेमवश वह भी साकार और सगुण हो जाता है।
जे कामी लोलुप जग माहीं ।
कुटिल काक इव सबहि डेराहीं ।।
अर्थ- इस संसार में जो कामी और लोभी, लालची लोग हैं। वे जिस प्रकार कुटिल कौवा सबसे डरता है। उसी प्रकार डरते रहते हैं।
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई ।
करै अन्यथा अस नहिं कोई ।।
अर्थ- जो ईश्वर करना चाहते हैं वही होता है। कोई कितना भी प्रयास कर ले किन्तु उनकी इच्छा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता।
तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर ।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन।।
अर्थ- आदमी के चरित्र का अंदाजा कभी उसके वेश भूषा से नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि अच्छा वेश देखकर मूढ़ ही नहीं चतुर व्यक्ति भी धोखा खा जाते हैं। जैसे मोर का वेश तो बहुत सुंदर है, लेकिन वह सांप का भोजन करता है।
धन्य देस सो जहँ सुरसरी ।
धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ।।
धन्य सो भूपु नीति जो करई ।
धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई ।।
अर्थ- वह देश धन्य है, जहां गंगा नदी बहती है। वह स्त्री धन्य है, जो पतिव्रत धर्म का पालन करती है। वह राजा धन्य है, जो नीति और न्यायपूर्वक शासन करता है। वह ब्राम्हण धन्य है, जो अपने धर्म से नही टलता।
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें ।
कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें ।।
काहू सुमति कि खल सँग जामी ।
सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी ।।
अर्थ- ज्ञानी ब्राम्हण का अहित करने वाले का वंश कहीं रह सकता है ? आत्मज्ञान हो जाने पर कहीं कर्म में आसक्ति रह सकती है ? दुष्टों के साथ रहने से कहीं अच्छी बुद्धि हो सकती है ? पराई स्त्री में रुचि रखने वाले को क्या कभी सद्गति मिल सकती है ?
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक ।
सुखी कि होहिं कबहुँ हरि निंदक ।।
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें ।
अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें ।।
अर्थ- परमज्ञान वाले को क्या जन्म मरण चक्कर हो सकता है ? ईश्वर की निंदा करने वाला क्या कभी सुखी हो सकता है ? बिना नीति ज्ञान के क्या राजा राज्य कर सकता है ? भगवान के चरित्र का वर्णन करने वाले के क्या पाप रह सकते हैं ?
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं ।
रौरव नरक कोटि जुग परहीं ।।
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा ।
अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा ।।
अर्थ- जो दुष्ट लोग अपने गुरु से ईर्ष्या करते हैं। वे रौरव नामक नरक में करोड़ों युगों तक पड़े रहकर कष्ट भोगते हैं। उसके बाद वे पशु-पक्षियों कज शरीर धारण करके दश हजार वर्षों तक कष्ट भोगते हैं।
दोहे 71 से 80
जेहि ते नीच बड़ाई पावा ।
सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा ।।
धूम अनल संभव सुनु भाई ।
तेहि बुझाव घन पदवी पाई ।।
अर्थ- नीच व्यक्ति जिससे बड़ाई, सम्मान पाता है। सबसे पहले उसी को नष्ट करता है। जिस प्रकार आग से बना हुआ बादलों में मिलकर उसी अग्नि को वर्षा द्वारा बुझा देता है।
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा ।
गावत नर पावहिं भव थाहा ।।
अर्थ- तुलसीदास कहते हैं कि कलियुग के एक प्रबहव यह है कि इसमें जप, तप, यज्ञ, ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। केवल ईश्वर के नाम स्मरण से ही व्यक्ति भवसागर से पर हो सकता है।
कलि कर एक पुनीत प्रतापा ।
मानस पुन्य होहिं नहिं पापा ।।
अर्थ- कलियुग के एक और बड़ा प्रभाव यह है कि इसमें मन में अच्छे कर्म करने का संकल्प करने मात्र से पुण्य मिल जाता है। किंतु पाप पूर्ण विचारों का दोष नहीं लगता है।
अबला कच भूषन भूरि छुधा ।
धनहीन दुखी ममता बहुधा ।।
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता ।
मति थोरि कठोरि न कोमलता ।।
अर्थ- तुलसीदास जी ने कलियुग की स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है कि इस युग में महिलाओं के बाल ही उनके आभूषण हैं। अर्थात वे कोई आभूषण नहीं धारण करती है। सदैव अतृप्त रहती हैं। सुख चाहती हैं परंतु धर्म में रुचि नहीं है। अल्पबुद्धि हैं और उनमें कोमलता नहीं है।
धनवंत कुलीन मलीन अपी ।
द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ।।
नहिं मान पुरान न बेदहि जो ।
हरि सेवक संत सही कलि सो ।।
अर्थ- धनी लोग मलिन होनेपर भी कुलीन माने जाते हैं। ब्राम्हण का चिन्ह केवल जनेऊमात्र रह गया और नंगे बदन रहने वाला तपस्वी कहा जाता है। जो वेदों और पुराणोंको नहीं मानते, कलियुगमें वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं।
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं ।
अबलानन दीख नहीं जब लौं ।।
अर्थ- कलियुग में पुत्र तभी तक माता पिता की बात मानते हैं। जब तक उनका विवाह नहीं हो जाता।
हरइ सिष्य धन सोक न हरई ।
सो गुर घोर नरक महुँ परई ।।
अर्थ- जो गुरु अपने शिष्य का धन तो ले लेता है। लेकिन उसके अज्ञान को नहीं दूर करता वह घोर नरक में जाता है।
पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं ।
अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित ।।
अर्थ- हे गरुड़जी! वेदोंमें मानी हुई ऐसी नीति है और सज्जन भी कहते हैं कि अपना परम हित जानकर अत्यन्त नीच से भी प्रेम करना चाहिये ।।
कीट मनोरथ दारू सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा।।
सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि कै मति यह कृत न मलीनी।।
अर्थ- मन की कामनाएं कीड़े की तरह हैं और यह शरीर लकड़ी की भांति है। ऐसा कौन धैर्यवान है जिसके शरीर में यह कीड़ा नहीं लगा ? पुत्र की कामना, धन की कामना, और यश की कामना इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को नहीं बिगाड़ दिया ?
जदपि प्रथम दुख पावइ, रोवइ बाल अधीर।
ब्याधि नास हित जननी, गनति सो सिसु पीर।।
तिमि रघुपति निज दास कर हरहिं मान हित लागि।
तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि।।
अर्थ- किसी बालक के फोड़ा हो जाने पर उसकी माता उस फोड़े की शल्य क्रिया करवा देती है। यद्यपि बालक को पहले तो बहुत कष्ट होता है। वह अधीर होकर रोता है। लेकिन माता उसके हित के लिए उसकी पीड़ा पर ध्यान नहीं देती।
उसी भांति श्रीराम जी अपने भक्त के मन के अभिमान को उसके हित के लिए दूर कर देते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसे प्रभु को भ्रम त्यागकर क्यों नहीं भजते ?
दोहे 81 से अधिक # Tulsidas ke dohe in hindi
सुमति कुमति सब के उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं।।
जहां सुमति तँह संपति नाना। जहां कुमति तँह बिपति निदाना।।
अर्थ- तुलसीदास जी इस दोहे (चौपाई) में कहते हैं कि हे नाथ अच्छी बुद्धि और कुबुद्धि सबके मन में रहती है। ऐसा वेद और पुराण कहते हैं।
जहां सुबुद्धि होती है वहां सब प्रकार की धन सम्पति रहती है। जहां कुबुद्धि रहती है वहां नाना प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।
अर्थ- हे तात! ईश्वर दुष्ट व्यक्ति की संगति किसी को न दें। उससे अच्छा तो नरक में निवास करना है। दुष्ट का साथ संसार में सबसे कष्टकारी होता है। उससे सदा हानि ही होती है।
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।
प्रगट सो तनु तव आगे सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा।।
अर्थ- पृथ्वी, पानी, अग्नि, आकाश और हवा से बना यह शरीर अत्यंत अधम है। यह शरीर तुम्हारे सामने सोया (मृत) पड़ा है। यह नश्वर है जबकि जीव या आत्मा नित्य है, इसलिए तुम किसके लिए रो रहे हो ?
अनुजबधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी।।
इन्हैं कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई।।
अर्थ- श्रीराम जी कहते हैं कि हे मूर्ख ! छोटे भाई की पत्नी, बहन, पुत्र की पत्नी और पुत्री ये चारों एक समान हैं। इन्हें यदि कोई बुरी दृष्टि से देखता है, तो उसका वध करने से पाप नहीं लगता।