दोस्तों ! आज हम आपके लिए 108+संस्कृत श्लोक- Shlok in Sanskrit नामक पोस्ट लेकर आए हैं। जिनमें नीति के श्लोक, संस्कृत सुभाषित, गीता के श्लोक, विद्यार्थियों के लिए श्लोक, शिवजी, सरस्वती जी, गणेश आदि पर हिन्दी अर्थ सहित श्लोक का संकलन है। ये sanskrit shlok with meaning आपको निश्चित ही पसंद आएंगें, ऐसा मुझे विश्वास है।
(1) संस्कृत श्लोक- sanskrit shlok in hindi
अन्यायोपार्जितं वित्तं दस वर्षाणि तिष्ठति।
प्राप्ते चैकादशेवर्षे समूलं तद् विनश्यति।।
अर्थ- अन्याय या गलत तरीके से कमाया हुआ धन दस वर्षों तक रहता है। लेकिन ग्यारहवें वर्ष वह मूलधन सहित नष्ट हो जाता है।
उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
यथा सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति न मुखेन मृगाः।।
अर्थ- कार्य उद्यम करने से पूर्ण होते हैं, मन में इच्छा करने से नहीं। जैसे सोते हुए शेर के मुंह में मृग अपने आप प्रवेश नहीं कर जाते।
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तंद्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।।
अर्थ– कल्याण की कामना रखने वाले पुरुष को निद्रा, तंद्रा, भय, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घसूत्रता इन छ: दोषों का त्याग कर देना चाहिए।
श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वान्हे चापरान्हिकम्।
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य न वा कृतम्।।
अर्थ- कल किया जाने वाला काम आज और सायंकाल में किया जाने वाला काम प्रातःकाल में ही पूरा कर लेना चाहिए। क्योंकि मृत्यु यह नहीं देखती कि इसका काम पूरा हुआ कि नहीं।
न देवा दण्डमादाय रक्षन्ति पशुपालवत।
यं तु रक्षितमिच्छन्ति बुद्धया संविभजन्ति तम्।।
देवतालोग चरवाहों की तरह डंडा लेकर पहरा नहीं देते। उन्हें जिसकी रक्षा करनी होती है। उसे वे सद्बुद्धि प्रदान कर देते हैं।
108+संस्कृत श्लोक- sanskrit shlok with meaning
सत्यं रूपं श्रुतं विद्या कौल्यं शीलं बलं धनम्।
शौर्यं च चित्रभाष्यं च दशेमे स्वर्गयोनयः।।
अर्थ- सत्य, विनय, शास्त्रज्ञान, विद्या, कुलीनता, शील, बल, धन, शूरता और वाक्पटुता ये दस लक्षण स्वर्ग के कारण हैं।
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।।
अर्थ- सभी प्रकार के संग्रह का अंत क्षय है। बहुत ऊंचे चढ़ने के अंत नीचे गिरना है। संयोग का अंत वियोग है और जीवन का अंत मरण है।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।
अर्थ- जिस घर में स्त्रियों का आदर होता है, उस घर में देवता निवास करते हैं। जहां स्त्रियों का आदर नहीं होता, वहाँ सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं।
मातृवत परदारांश्च परद्रव्याणि लोष्टवत्।
आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति।।
अर्थ- पराई स्त्री को माता के समान, परद्रव्य को मिट्टी के ढेले के समान और सभी प्राणियों को अपने समान देखता है। वास्तव में उसी का देखना सफल है।
परस्वानां च हरणं परदाराभिमर्शनम्।
सचह्रदामतिशङ्का च त्रयो दोषाः क्षयावहाः।।
अर्थ- दूसरों के धन का अपहरण, पर स्त्री के साथ संसर्ग और अपने हितैषी मित्रों के प्रति घोर अविश्वास ये तीनों दोष जीवन का नाश करने वाले हैं।
sanskrit shlok with meaning in hindi
स्वर्गो धनं वा धान्यं वा विद्या पुत्राः सुखानि च।
गुरुवृत्यनुरोधेन न किञ्चिदपि दुर्लभम्।।
अर्थ- गुरुजनों की सेवा से स्वर्ग, धन-धान्य, विद्या, पुत्र और सुख कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
व्यसने वार्थकृच्छ्रे वा भये वा जीवितान्तगते।
विमृशंश्च स्वया बुद्ध्या धृतिमान नावसीदति।।
अर्थ- शोक में, आर्थिक संकट में या प्राणों का संकट होने पर जो अपनी बुद्धि से विचार करते हुए धैर्य धारण करता है। उसे अधिक कष्ट नहीं उठाना पड़ता।
मूढ़ैः प्रकल्पितं दैवं तत परास्ते क्षयं गताः।
प्राज्ञास्तु पौरुषार्थेन पदमुत्तमतां गताः।।
अर्थ- भाग्य की कल्पना मूर्ख लोग ही करते हैं। बुद्धिमान लोग तो अपने पुरूषार्थ, कर्म और उद्द्यम के द्वारा उत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं।
अबन्धुर्बन्धुतामेति नैकट्याभ्यासयोगतः।
यात्यनभ्यासतो दूरात्स्नेहो बन्धुषु तानवम्।।
अर्थ- बार बार मिलने से अपरिचित भी मित्र बन जाते हैं। दूरी के कारण न मिल पाने से बन्धुओं में स्नेह कम हो जाता है।
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।।
अर्थ- प्रिय वचन बोलने से सभी जीव प्रसन्न हो जाते हैं। मधुर वचन बोलने से पराया भी अपना हो जाता है। अतः प्रिय वचन बोलने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए।
सरल श्लोक- easy sanskrit shlok
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्।
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते।।
अर्थ- संसार में जन्म मरण का चक्र चलता ही रहता है। लेकिन जन्म लेना उसका सफल है। जिसके जन्म से कुल की उन्नति हो।
यत्र स्त्री यत्र कितवो बालो यत्रानुशासिता।
मज्जन्ति तेवशा राजन् नद्यामश्मप्लवा इव।।
अर्थ- जहां का शासन स्त्री, जुआरी और बालक के हाथ में होता है। वहां के लोग नदी में पत्थर की नाव में बैठने वालों की भांति विवश होकर विपत्ति के समुद्र में डूब जाते हैं।
धृतिः शमो दमः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा।
मित्राणाम् चानभिद्रोहः सप्तैताः समिधः श्रियः।।
अर्थ- धैर्य, मन पर अंकुश, इन्द्रियसंयम, पवित्रता, दया, मधुर वाणी और मित्र से द्रोह न करना ये सात चीजें लक्ष्मी को बढ़ाने वाली हैं।
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
विश्वासाद् भयमभ्येति नापरीक्ष्य च विश्वसेत्।।
अर्थ- जो विश्वसनीय नहीं है, उस पर कभी भी विश्वास न करें। परन्तु जो विश्वासपात्र है, उस पर भी आंख मूंदकर भरोसा न करें। क्योंकि अधिक विश्वास से भय उत्पन्न होता है। इसलिए बिना उचित परीक्षा लिए किसी पर भी विश्वास न करें।
आयुर्वित्तं गृहच्छिद्रं मन्त्रमैथुनभेषजम्।
दानमानापमानं च नवैतानि सुगोपयेत्।।
अर्थ- आयु, धन, घर के दोष, मन्त्र, मैथुन, दवा, दान, मान और अपमान यह किसी से नहीं कहना चाहिए।
उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये।
पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्द्धनम्।।
अर्थ- मूर्खों को दिया गया उपदेश उनके क्रोध को शांत न करके और बढ़ाता ही है। जैसे सर्पों को दूध पिलाने से उनका विष ही बढ़ता है।
यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता।
एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम्।।
अर्थ- यौवन, धन संपत्ति, प्रभुता और अविवेक इनमें से एक भी अनर्थ करने वाला है। लेकिन जिसके पास ये चारों हों, उसके विषय में कहना ही क्या !
न स्वल्पस्य कृते भूरि नाशयेन्मतिमान् नरः।
एतदेवातिपाण्डित्यं यत्स्वल्पाद् भूरिरक्षणम्।।
अर्थ- थोड़े के लिए अधिक का नाश न करे, बुद्धिमत्ता इसी में है। बल्कि थोड़े को छोड़कर अधिक की रक्षा करे।
कवचिद् रुष्टः क्वचित्तुष्टो रुष्टस्तचष्टः क्षणे क्षणे।
अव्यवस्थितचित्तस्य प्रसादो अपि भयंकरः।।
अर्थ- जो कभी नाराज होता है, कभी प्रसन्न होता है। इस प्रकार क्षण क्षण में नाराज और प्रसन्न होता रहता है। उस चंचल चित्त पुरुष की प्रसन्नता भी भयंकर है।
जिव्हा दग्धा परान्नेन करौ दग्धौ प्रतिगृहात्।
मनो दग्धं परस्त्रीभिः कार्यसिद्धिः कथं भवेत्।।
अर्थ- दूसरे का अन्न खाने से जिसकी जीभ जल चुकी है। दूसरे का दान लेने से जिसके हाथ जल चुके हैं। दूसरे की स्त्री का चिंतन करने से जिसका मन जक चुका है। उसे पूजा पाठ जप तप से सिद्धि कैसे मिल सकती है।
परान्नं च परद्रव्यं तथैव च प्रतिग्रहम्।
परस्त्रीं परनिन्दां च मनसा अपि विवर्जयेत।।
अर्थ- पराया अन्न, पराई संपत्ति, दान, पराई स्त्री और दूसरे की निंदा इनकी मन से भी इच्छा नहीं करनी चाहिए।
108+संस्कृत श्लोक- Shlok in Sanskrit
निवसन्ति हि यत्रैव सन्तः सद्गुणभूषणाः।
तन्मंगल्यं मनोज्ञं च तत्तीर्थं तत्तपोवनम्।।
अर्थ- सतगुणी सज्जनपुरुष जहां निवास करते हैं। वही स्थान मनोरम एवं मंगलमय है। वही तपोवन है और वही तीर्थ है।
लोके यशः परत्रापि फलमुत्तमदानतः।
भवतीति परिज्ञाय धनं दीनाय दीयताम्।।
अर्थ- दिए गए दान का फल इस लोक में यश और मृत्यु के बाद उत्तम लोकों की प्राप्ति है। इसलिए दीनों के निमित्त दान करना चाहिए।
विभवे भोजने दाने तिष्ठन्ति प्रियवादिनः।
विपत्ते चागते अन्यत्र दृश्यन्ते खलु साधवः।।
अर्थ- मनुष्य के सुख- समृद्धि के समय, खान- पान और मान के समय चिकनी चुपड़ी बातें करने वालों की भीड़ लगी रहती है। लेकिन विपत्ति के समय केवल सज्जन पुरुष ही साथ दिखाई पड़ते हैं।
भवन्ति नम्रास्तरवः फलागमै-
र्नवाम्बुभिर्दूरविलम्बिनो घनाः।
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः
स्वभाव एवैष परोपकारिणाम्।
अर्थ- फल लगने पर पेड़ झुक जाते हैं। जल से भरे बादल नीचे आ जाते हैं। सज्जन लोग धन पाकर विनम्र हो जाते हैं। यही परोपकारियों का स्वभाव है।
वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणां चेतांसि को नु विज्ञातुमर्हति।।
अर्थ- महापुरुषों के मन की थाह कौन पा सकता है। जो अपने दुखों में वज्र से भी कठोर और दूसरों के दुखों के लिए फूल सभी अधिक कोमल हो जाता है।
दुष्कृतं हि मनुष्याणां अन्नमाश्रित्य तिष्ठति।
अश्नाति यो हि यस्यान्नं स तस्याश्नाति किल्बिषम्।।
अर्थ- मनुष्य के दुष्कृत्य या पाप उसके अन्न में रहते हैं। जो जिसका अन्न खाता है। वह उसके पाप को भी खाता है।
यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यंचों अपि सहायताम्।
अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोपि विमुञ्चति।।
अर्थ- धर्म और न्याय के मार्ग पर चलने वाली की संसार के सभी प्राणी सहायता करते हैं। जबकि अन्याय के मार्ग पर चलने वाले को उसका सगा भाई भी छोड़ देता है।
शुभाशुभं कृतं कर्म भुंजते देवता अपि।
सविता हेमहस्तोभूद् भगो अन्धः पूषकोद्विजः।।
अर्थ- मनुष्य ही नहीं, देवताओं को भी अपने किये किये शुभ-अशुभ कर्मों का फल भोगने पड़ता है। सविता देवता का हाथ कट जाने पर उन्हें स्वर्ण का कृत्रिम हाथ लगाने पड़ा था। भगदेवता अपने कर्म से अंधे हुए और पूषा देवता दंतहीन हो गए।
प्रभोरपि धिगर्थित्वं रूपहानिं करोति यत्।
मेघातिथिं यदायाचदिन्द्रो मेषोभवत् ततः।।
अर्थ- मांगने से मनुष्य का रूप स्वरूप घटता है। याचना यदि भगवान से भी की जाय, तो उचित नहीं है। जिस प्रकार मेघातिथिं ऋषि से सोमयाचना करने के कारण इंद्र को बैल बनना पड़ा।
मूर्खो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे।
तयोः फलं तु तुल्यं हि भावग्राही जनार्दनः।।
अर्थ- मूर्ख कहता है विष्णाय नमः जोकि अशुद्ध है और ज्ञानी कहता है विष्णवे नमः जो व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध है। लेकिन दोनों का फल एक ही है। क्योंकि भगवान शब्द नहीं भाव देखते हैं।
कनिष्ठाः पुत्रवत् पाल्या भ्रात्रा ज्येष्ठेन निर्मलाः।
प्रगाथो निर्मलो भ्रातुः प्रागात् कण्वस्य पुत्रताम्।।
अर्थ- बड़े भाई को अपने छोटे भाइयों का पुत्रवत् पालन करना चाहिए। जैसे महर्षि कण्व ने अपने छोटे भाई प्रगाथ का पुत्रवत् पालन पोषण किया था।
अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात प्रतिनिवर्तते।
स दत्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति।।
अर्थ- जिस व्यक्ति के दरवाजे से अतिथि बिना संतुष्ट हुए चला जाता है। वह उसके पुण्य ले जाता है और अपने पाप उसे दे जाता है।
न विज्ञातं न चागम्यं नाप्राप्यं दिवि चेह वा।
उद्यतानां मनुष्याणां यतचित्तेन्द्रियात्मनाम्।।
अर्थ- विद्वान पुरुषों के लिए कौन सा कार्य असाध्य है। जो अपने मन, बुद्धि और इंद्रियों को संयमित रखकर उद्यम में लगे रहते हैं। उनके लिए पृथ्वी, आकाश और पाताल में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं जो अगम्य, अप्राप्य अथवा अज्ञात हो।
त्यज चिंतां महाराज स्वसत्यमनुपालय।
श्मशानवद्वर्जनीयो नरः सत्य बहिष्कृतः।
नातः परतरं धर्मं वदन्ति पुरुषस्य तु।
यादृशं पुरुषव्याघ्र स्वसत्यपरिपालनम्।।
अर्थ- हे महाराज, चिंता का त्याग करके अपने सत्य का पालन करिए। जो मनुष्य सत्य से विचलित होता है। वह श्मशान की भांति त्याग देने योग्य है। पुरुष के लिए सत्य की रक्षा से बढ़कर दूसरा धर्म नहीं है। जिसका वचन मिथ्या हो जाता है। उसके अग्निहोत्र, स्वाध्याय एवं दान आदि सभी शुभकर्म निष्फल हो जाते हैं।
सत्येनार्कः प्रतिपति सत्ये तिष्ठति मेदिनी।
सत्यं चोक्तं परोधर्मः स्वर्गः सत्ये प्रतिष्ठितः।।
अर्थ- सत्य से ही स्वर्ग तप रहा है। सत्य से ही पृथ्वी टिकी हुई है। सत्यभाषण सबसे बड़ा धर्म है। स्वर्ग भी सत्य के बल पर ही प्रतिष्ठित है।
संगः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत् त्यक्तं न शक्यते।
स सद्भिः सह कर्तव्यः सतां संगो हि भेषजम्।
कामः सर्वात्मना हेयो हातुं चेच्छक्यते न सः।
मुमुक्षां प्रतितत्कार्यं सैव तस्यापि भेषजम्।।
अर्थ- आसक्ति का सब प्रकार से त्याग करना चाहिए। किन्तु यदि संभव न हो तो सत्पुरुषों की संगति करनी चाहिए। क्योंकि सत्पुरुषों की संगति ही उसकी औषधि है। कामना को सर्वथा त्याग देना चाहिए। परन्तु यदि वह छोड़ी न जा सके तो मुमुक्षा (मुक्ति की इच्छा) की कामना करनी चाहिए। क्योंकि मुमुक्षा ही कामना को मिटाने की दवा है।
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसश्श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।।
अर्थ- धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य और विभूति इन छः ऐश्वर्यों से युक्त परमशक्ति का नाम भगवान है।
अपि मानुष्यकं लब्ध्वा भवन्ति ज्ञानिनो न ये।
पशुतैव वरं तेषां प्रत्यवायाप्रवर्तनात्।।
अर्थ- मनुष्य जन्म पाकर भी जो ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करता है। उसका जन्म व्यर्थ है। ऐसे मनुष्य से तो पशु ही श्रेष्ठ हैं।
सर्वथा ध्वंसरहितं सत्यपि ध्वंसकारणे।
यद् भावबंधनं यूनोः स प्रेमा परिकीर्तितः।।
अर्थ- जो बहुत प्रयास के बाद भी नष्ट नहीं होता है। जो कभी रुकता, घटता और मिटता नहीं है। बल्कि प्रतिक्षण बढ़ता रहता है, उसे ही प्रेम कहा जाता है।
प्रहस्य मणिमुद्धरेन्मकरवक्रदंष्ट्रान्तरात्
समुद्रमपि सन्तरेत्प्रचलदूर्मिमालाकुलम् ।
भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारयेन्न
तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥
भावार्थ ― अगर हम चाहें तो मगरमच्छ के दांतों में फंसे मोती को भी निकाल सकते हैं। साहस के बल पर हम बड़ी-बड़ी लहरों वाले समुद्र को भी पार कर सकते हैं। यहाँ तक कि हम गुस्सैल सर्प को भी फूलों की माला तरह अपने गले में पहन सकते हैं। लेकिन एक मूर्ख को सही बात समझाना असम्भव है।
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम ।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति॥
भावार्थ- जिस व्यक्ति के पास स्वयं का विवेक नहीं है । शास्त्र उसका क्या करेगा? जैसे नेत्रहीन व्यक्तियों के लिए दर्पण व्यर्थ है।
सर्वं परवशं दु:खं
सर्वमात्मवशं सुखम् l
एतद्विद्यात् समासेन
लक्षणं सुखदु:खयो: ll
भावार्थ — दूसरों पर निर्भर रहना सर्वथा दुःख का कारण होता है । आत्मनिर्भर होना सर्वथा सुख का कारण होता है। यही “सुख और दुःख” का लक्षण है इसलिए व्यक्ति को सदैव अपने ऊपर विश्वास करके आगे बढ़ना चाहिए। जिससे व्यक्ति कभी भी दुःखी नहीं हो सकता है।
विद्यार्थी के लिए श्लोक- shlok in sanskrit on vidya
अभिवादनशीलस्य च नित्य वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।
अर्थ- प्रणाम करने और वृद्धों की सेवा करने वाले कि चार चीजें बढ़ती हैं- आयु, विद्या, यश और बल।
काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च।
अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणम्।।
अर्थ- कौवे जैसी फुर्ती, बगुले जैसा ध्यान, कुत्ते की तरह सोना, अल्पाहारी, गृहत्याग करने वाला ये विद्यार्थी के पांच लक्षण हैं।
विद्या ददाति विनयं विनयात याति पात्रताम्।
पात्रत्वात धनमवाप्नोति धनात धर्मः ततः सुखम्।।
अर्थ- विद्या विनयं देती है। विनय से योग्यता और योग्यता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख प्राप्त होता है।
मातरं पितरं विप्रमाचार्यं चावमन्यते।
स पश्यति फलं तस्य प्रेतराजवशं गतः।।
अर्थ- जो व्यक्ति माता पिता ब्राम्हण और गुरु का अपमान करता है। वह यमराज के वश में होकर उस पाप का फल भोगता है।
पितरौ हि सदा वन्द्यौ न त्यजेदपराधिनौ।
पित्रा बद्धः शुनःशेपो ययाचे पित्रदर्शनम्।।
अर्थ- माता पिता सदा ही पूजनीय हैं। भले ही वे अपराधी क्यों न हों। शुनःशेप को उसके पिता ने यूप में बांध दिया था। फिर भी उसने मुक्ति के बाद पिता के ही दर्शन की इच्छा की।
शान्तितुल्यं तपो नास्ति,
न संतोषात् परं सुखम्।
न तृष्णायाः परो व्याधिः,
न च धर्मो दयापरः।।
अर्थ- शांति के समान कोई तप नहीं है। संतोष से बड़ा कोई सुख नहीं है। लालच से बढ़कर कोई बीमारी नहीं है और दया से बड़ा कोई धर्म नहीं है।
न हि वैरेण वैराणि, शाम्यन्तीह कदाचन।
अवैरेण तु शाम्यन्ति, एष धर्मः सनातनः।।
अर्थ- शत्रुता कभी भी शत्रुता से शांत नहीं होती। वह प्रेमभाव से ही शांत होती है। यही सत्य और शाश्वत धर्म है।
चंदनं शीतलं लोके, चन्दनादपि चंद्रमाः।
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये, शीतला साधुसंगतिः।।
अर्थ- इस संसार में चंदन शीतल है। चन्द्रमा चंदन से भी शीतल है। सज्जनों की संगति चन्द्रमा और चंदन दोनों से अधिक शीतल है।
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः,
वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
धर्मः स नो यत्र न सत्यमस्ति,
सत्यं न तद्यच्छलमभ्युपैति।।
अर्थ- वह सभा, सभा नहीं, जिसमें कोई वृद्ध न हो। वे वृद्ध, वृद्ध नहीं, जो धर्म की बात नहीं बोलते। वह धर्म, धर्म नहीं, जिसमें सत्य न हो। वह सत्य, सत्य नहीं, जो कपटपूर्ण हो।
नासत्यवादिनः सख्यं, न पुण्यं न यशो भुवि।
दृश्यते नापि कल्याणं, कालकूटमिवाश्नतः।।
अर्थ- विष पीने वाले व्यक्ति की तरह असत्य बोलने वाले व्यक्ति को न तो मित्रता प्राप्त होती है, न पुण्य, न यश और न ही उसका कल्याण होता है।
शरदि न वर्षति गर्जति,
वर्षति वर्षासु निःस्वनो मेघः।
नीचो वदति न कुरुते,
न वदति सुजनः करोत्येव।।
अर्थ- शरद ऋतु में बादल गरजता तो है लेकिन बरसता नहीं है। जबकि वर्षा ऋतु में वह गरजता नहीं है केवल बरसता है। इसी तरह बड़बोला आदमी कहता बहुत है किंतु करता कुछ नहीं। जबकि सज्जन कहता तो कुछ नहीं, किंतु करता अवश्य है।
मनसि वचसि काये पुण्यपीयुषपूर्णाः,
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं,
निजह्रदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः।
अर्थ- जिनके मन, वचन और शरीर पुन्यरूपी अमृत से भरे हैं। जो अपने उपकारों से तीनों लोकों को तृप्त करते हैं। जो दूसरों के परमाणु जितने छोटे गुणों को भी पर्वत के समान बड़े समझकर अपने हृदय में धारण करते हैं। ऐसे सज्जन संसार में कितने हैं ?
अल्पानामपि वस्तूनां, संहतिः कार्यसाधिका।
तृणेर्गुणत्वमापन्नैः, बध्यन्ते मत्तदन्तिनः।।
अर्थ- छोटी- छोटी वस्तुएं जब प्राप्त होती हैं, तो उनसे बड़े-बड़े काम सिद्ध हो जाते हैं। जैसे रस्सी तिनकों से बनती है और उससे शक्तिशाली हाथी भी बंध जाते हैं।
अथ ये संहता वृक्षाः, सर्वतः सुप्रतिष्ठिताः।
न ते शीघ्रेण वातेन, हन्यंते ह्रोकसंश्रयात।।
अर्थ- जंगल में जो वृक्ष अपनी अपनी जड़ों के द्वारा एक दूसरे से बंधे होते हैं। वे एक साथ जुड़े होने के कारण तेज आंधी से भी नष्ट नहीं होते।
सर्वद्रव्येषु विद्यैव, द्रव्यमाहुरनुत्तमम्।
अहार्यत्वादनघ्र्यत्वाद, अक्षयत्वाच्च सर्वदा।।
अर्थ- सभी संपत्तियों में विद्या ही सर्वोत्तम संपत्ति है। क्योंकि इसे कोई भी छीन नहीं सकता है, न ही इसके लिए कोई मूल्य चुकाने की आवश्यकता होती है। इसका कभी विनाश भी नहीं होता है।
वचस्तत्र प्रयोक्तव्यं , यत्रोक्तं रहते फलम्।
स्थायी भवति चात्यंन्तं , रागः शुक्लपटे तथा।।
अर्थ- वाणी का प्रयोग वहीं करना चाहिए, जहां वह वैसे ही सफल हो जैसे सफेद कपड़े पर लाल रंग अत्यंत पक्का होता है।
ऋषयोः राक्षसीमाहुः, वाचमुन्मत्तदृप्तयोः।
सा योनिः सर्ववैराणां, सा हि लोकस्य निर्ऋतः।।
अर्थ- उन्मत्त और अभिमानी व्यक्ति के वचनों को ऋषिगण राक्षसी वाणी कहते हैं। क्योंकि इस प्रकार की वाणी ही सभी झगड़ों की जड़ होती है। साथ ही संसार के विनाश का कारण भी बनती है।
यस्य कस्य प्रसूतोsपि, गुणवान पूजते नरः।
धनुर्वंश-विशुद्धोपि, निर्गुणः किं करिष्यति।।
अर्थ- मनुष्य कहीं भी, किसी भी कुल में भी पैदा हुआ हो। यदि वह गुणवान है, तभी उसकी पूजा होती है। अच्छे बांस से बना धनुष, यदि डोरी- प्रत्यंचा (गुण) विहीन है। तो वह किसी काम का नहीं होता।
अर्थानामर्जने दुःखम्, अर्जितानां च रक्षणे।
नाशे दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थदुःखभाजनम्।।
अर्थ- धन को अर्जित करने में दुख होता है। अर्जित किये गए धन की रक्षा करने में भी कष्ट होता है। धन के नष्ट होने या खर्च होने पर भी कष्ट होता है। दुख के पात्र इस धन को धिक्कार है।
यं माता पितरौ क्लेशं, सहेते सम्भवे नृणाम्।
न तस्य निष्कृतिः शक्या, कर्तुं वर्षशतैरपि।।
अर्थ- मनुष्य को जन्म देने में माता-पिता जो कष्ट सहते हैं। उस ऋण को सैंकड़ों वर्षों में भी नहीं चुकाया जा सकता।
कामं प्रियानपि प्राणान, विमुञ्चन्ति मनस्विनः।
इच्छन्ति न त्वमित्रेभ्यो, महतीमपि सत्क्रियाम्।।
अर्थ- स्वाभिमानी पुरुष अपने प्राण भले ही त्याग दें। लेकिन अपने दुश्मनों से सम्मान और बड़े से बड़े सत्कार की कामना नहीं करते।
उदेति सविता ताम्रः, ताम्र एवास्तमेति च।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च, महतामेकरूपता।।
अर्थ- सूर्य लाल रंग का ही उदय होता है और लाल रंग का ही अस्त होता है। उसी प्रकार महान पुरुष भी संपत्ति और विपत्ति में एक समान ही व्यवहार करते हैं।
शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः,
यस्तु क्रियावान पुरुषः स विद्वान्।
सुचिन्तितं चौषधमातुराणां,
न नाममात्रेण करोत्यरोगं।।
अर्थ- शास्त्रों का अध्ययन करके भी लोग मूर्ख रह जाते हैं। विद्वान वही है जो व्यवहारकुशल है। जैसे सही दवा के सेवन से रोगी ठीक होता है न कि दवा का नाम लेने से।
निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।
अर्थ- नीतिनिपुण व्यक्ति चाहे निंदा करे या प्रसंशा, लक्ष्मी आये या चली जाए। मृत्यु आज ही हो जाये या बाद में। धैर्यवान पुरुष के कदम कभी भी न्याय पथ से विचलित नहीं होते।
वश्येन्द्रियं जितात्मानं, धृतदण्डं विकारिषु।
परीक्ष्यकारिणं धीरम्, अत्यंतं श्रीर्निषेवते।।
अर्थ- जिन्होंने इंद्रियों को वश में कर लिया है। जो खुद पर नियंत्रण रखने वाले हैं। दुष्टों को दंडित करने वाले और हर काम को विचारकर करने वाले धीर पुरुषों का लक्ष्मी भी सम्मान करती है।
नास्ति भूमिसमं दानं, नास्ति मातृसमो गुरुः।
नास्ति सत्यसमो धर्मो, नास्ति दानसमो निधिः।।
अर्थ- भूमिदान के समान कोई दान नहीं है। माता के समान कोई गुरु नहीं है। सत्य के जैसा कोई धर्म नहीं है। दान के समान कोई निधि नहीं है।
परनिन्दासु पाण्डित्यं, स्वेषु कार्येष्वनुद्यमः।
प्रद्वेषश्च गुणज्ञेषु, पन्थानो ह्यपदां त्रयः।।
अर्थ- दूसरों की निंदा करने में निपुणता, अपने काम में आलस्य, गुणी व्यक्तियों से द्वेष, ये तीनों ही आपत्ति के मार्ग हैं।
गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति,
ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः।
आस्वाद्यतोयाः प्रभवन्ति नद्यः,
समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः।।
अर्थ- गुणी लोगों की संगति करने पर मनुष्य के गुण गुण ही बने रहते हैं। जबकि गुणहीनों की संगति में वे ही गुण दोष बन जाते हैं। जैसे नदियों का मीठा जल समुद्र में मिल जाने पर पीने लायक नहीं रहता।
वरं पर्वतदुर्गेषु, भ्रान्तः वनचरैः सह।
न मूर्खजनसम्पर्कः, सुरेन्द्रभवनेष्वपि।।
अर्थ- जंगली लोगों के साथ वन में भटकना ठीक है। लेकिन मूर्ख व्यक्ति के साथ इंद्र के महल में भी रहना ठीक नहीं है। तात्पर्य यह है कि मूर्खों की संगति उचित नहीं।
न तक्रसेवी व्यथते कदाचित,
न तक्रदग्धाः प्रभवन्ति रोगाः।
यथा सुराणाममृतं प्रधानं,
तथा नराणां भुवि तक्रमाहुः।
अर्थ- तक्र (मट्ठा) का सेवन करने वाला बहुत कम रोग पीड़ित होता है। तक्र के द्वारा नष्ट किये गए उदर रोग फिर उत्पन्न नहीं होते। जिस प्रकार देवताओं के लिए अमृत प्रधान है। उसी प्रकार मनुष्यों के लिए मठ्ठा महत्वपूर्ण है।
नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने।
विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता।।
अर्थ- जंगल में शेर का न तो राज्याभिषेक होता है न ही कोई संस्कार होता है। पराक्रम के बल पर राज्य प्राप्त करने वाले शेर का जंगल का राजा होना स्वतः सिद्ध है।
अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति,
प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च,
दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च।।
बुद्धिमत्ता, अच्छे कुल में जन्म, इंद्रियों पर संयम, शास्त्रों का ज्ञान, वीरता, मितभाषण, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता। ये आठ गुण मानव के जीवन को उज्जवल करते हैं।
अज्ञेभ्यो ग्रन्थिनः श्रेष्ठा, ग्रंथिभ्यो धारिणो वराः।
धारिभ्यो ज्ञानिनः श्रेष्ठा, ज्ञानिभ्यो व्यवसायिनः।।
अर्थ- अनपढ़ों की अपेक्षा पुस्तक पढ़ने वाले श्रेष्ठ हैं। पुस्तक पढ़ने वालों की अपेक्षा अर्थ को धारण करने वाले श्रेष्ठ हैं। ग्रंथों के अर्थ को धारण करने वालों की अपेक्षा ज्ञानी श्रेष्ठ हैं। ज्ञानियों की अपेक्षा अर्थ को क्रियान्वित करने वाले श्रेष्ठ हैं।
गीता श्लोक- geeta shlok in sanskrit
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोस्त्वकर्मणि।।
अर्थ- तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है, उनके फलों में नहीं। इसलिए कर्मफल की चिंता न करके केवल कर्म करो।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।
अर्थ- गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति अनन्य भाव से मेरा चिंतन करता है, भजन करता है। ऐसे नित्य निरंतर अनुरागी पुरुषों के योगक्षेम का वहन मैं करता हूँ अर्थात सभी प्रकार से उनका ध्यान रखता हूँ।
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषते।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।
अर्थ- श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! तू न सोच करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक कर रहा है। ज्ञानी पुरुषों की तरह तर्क कर रहा है। जबकि ज्ञानी पुरुष जीवित अथवा मृत किसी के लिए शोक नहीं करते हैं।
य एनं वेत्ति हंतारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।
अर्थ- जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है और जो इसे मर हुआ समझता है। वे दोनों सत्य नहीं जानते। क्योंकि आत्मा न तो किसी को मारती है और न किसी के द्वारा मारी जाती है।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतो अयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
अर्थ- यह आत्मा न तो किसी काल में जन्म लेती है और न ही मरती है। न ही यह उत्पन्न होकर फिर से होने वाली है। यह तो अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। यह शरीर के मारे जाने पर भी कभी नहीं मरती है।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवो जन्ममृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।
अर्थ- जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है और जिसकी मृत्यु हुई है। उसका जन्म भी निश्चित है। इसलिए इस निरुपाय विषय में तेरा शोक करना व्यर्थ है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
अर्थ- हे अर्जुन, तुम शोक न् करो। मैं तुम्हे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा। तुम केवल समस्त धर्मों के आश्रय को त्यागकर मेरी शरण में आ जाओ।
शिव श्लोक- shiv shlok in sanskrit
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारं।
सदावसंतं ह्रदयारविन्दे भवंभवानी सहितं नमामि।।
अर्थ- जो कपूर के समान गौर वर्ण वाले हैं, दया के अवतार हैं। संसार के साररूप, सर्पों की माला पहने हैं। वे भगवान शिव मां पार्वती के साथ सदैव हमारे हृदय रूपी कमल में निवास करें।
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वंदे पार्वती परमेश्वरौ।।
अर्थ- जो शब्दों की भांति अलग अलग होते हुए भी शब्दों के अर्थ की भाँति एक हैं। उन संसार के माता पिता स्वरूप शंकर पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ।
अघोरेभ्यो अथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः।
सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेस्तु रुद्ररूपेभ्यः।।
अर्थ- जो अघोर हैं, घोर हैं, घोर से भी घोरतर हैं। जो सर्वसंहारकारी रुद्ररूप हैं। आपके उन सभी रूपों को मेरा नमस्कार है।
प्रातः स्मरामि भवभीतिहरं सुरेशं
गंगाधरं वृषभवाहनमम्बिकेशम्।
खटवाङ्गशूलवरदाभयहस्तमीशं
संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम्।।
अर्थ- जो संसार के भय को हरने वाले और देवताओं के स्वामी हैं। जो गंगा को धारण करते हैं और बैल जिनका वाहन है। जो अम्बा के ईश हैं एवं जिनके हाथ में खटवाङ्ग, त्रिशूल, वरद और अभयमुद्रा है। उन संसाररोग को हरने वाले अद्वितीय औषधि रूप महादेव को मैं प्रातःकाल नमस्कार करता हूँ।
नमामि शम्भुं पुरुषं पुराणं नमामि सर्वज्ञमपारभावम्।
नमामि रुद्रं प्रभुमक्षयं तं नमामि शर्वं शिरसा नमामि।।
अर्थ- मैं पुराणपुरुष शम्भु को नमस्कार करता हूँ। जिनकी असीम सत्ता का पर नहीं है, उन सर्वज्ञ शिव को मैं नमस्कार करता हूँ। अविनाशी प्रभु रुद्र और सबका संहार करने वाले शर्व को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ।
गणेश श्लोक- ganpati shlok in sanskrit
गजाननंभूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बू फलचारुसेवितम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्।।
अर्थ- जिनका मुख हाथी के समान है। भूतगण जिनकी सेवा करते हैं। कैथ और जामुन के फल जिन्हें प्रिय हैं। शोक का नाश करने वाले पार्वती के पुत्र, विघ्नेश्वर गणेश के चरणों में मैं प्रणाम करता हूँ।
प्रातः स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं
सिन्दूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मम्।
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्ड-
माखण्डलादिसुरनायकवृन्दवन्द्यम्।।
अर्थ- अनाथों के बंधु, सिंदूर से शोभायमान दोनों गण्डस्थल वाले, प्रबल विघ्न का नाश करने में समर्थ एवं इन्द्रादि डिवॉन से पूजित श्रीगणेश का में प्रातःकाल स्मरण करता हूँ।
विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय
लम्बोदराय सकलाय जगद्धिताय
नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय
गौरीसुताय गणनाथ नमोनमस्ते।
अर्थ- विघ्नों का नाश करने वाले, वर देने वाले, देवताओं के प्रिय, लम्बोदर, सम्पूर्ण जगत का उद्धार करने वाले, टेढ़े मुख वाले, श्रुति यज्ञ से शोभायमान गौरी के पुत्र गणेश जी को नमस्कार है।
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत सर्वविघ्नोपशान्तये।।
अर्थ- जो श्वेत वस्त्र धारण किये हुए हैं, चन्द्रमा के समान जिनका रंग है। चार भुजाओं वाले, प्रसन्न मुख, सभी विघ्नों का नाश करने वाले ऐसे गणपति का मैं ध्यान करता हूँ।
वक्रतुण्डमहाकाय कोटिसूर्यसमप्रभः।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।
अर्थ- टेढ़े मुख वाले, महाकाय, करोड़ों सूर्यों के समान जिनकी चमक है। ऐसे देव गणेश मेरे सभी कामों को सदैव निर्विघ्न पूर्ण करें।
सरस्वती के श्लोक- sanskrit shlok of saraswati
घंटाशूलहलानि शंङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं।
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्।।
अर्थ- जो अपने करकमलों में घण्टा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं। शरदऋतु के चन्द्रमा के समान जिनकी कांति है। जो तीनों लोकों की आधारभूत और शुम्भ आदि दैत्यों के नाश करने वाली हैं। जो गौरी के शरीर से उत्पन्न हुई हैं। उन महासरस्वती देवी का मैं निरंतर भजन करता हूँ।
करेण वीणा परिवादयन्तीम् तथा जपन्तीमपरेण मालाम्।
मरालपृष्ठाम् सन्सन्निविष्टाम् सरस्वतीम् ताम् सिरसा नमामि।।
अर्थ- एक हाथ में वीणा धारण किये हैं और दूसरे हाथ में माला। मोर की पीठ पर सुशोभित मां सरस्वती को मैं सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।
या कुन्देन्दु तुषारहार धवला, या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमंडित करा, या श्वेतपद्मासनाः।।
या बम्हाच्युतशंकर प्रभृतिभिः देवैः सदा वन्दितः।
सा माम् पातु भगवती सरस्वती, निःशेषजाड्यापहा।।
अर्थ- जो देवी शारदा कुंद के फूल, बर्फ के हार और चन्द्रमा के समान श्वेत और श्वेत वस्त्रों से सुशोभित हैं। जिनके हाथों में वीणा का दंड शोभित है। जो श्वेत कमल पर आसीन हैं और जिनकी स्तुति ब्रम्हा, विष्णु, महेश आदि देवता सदा ही किया करते हैं। वे भगवती सरस्वती अज्ञान के अंधकार से मेरी रक्षा करें।
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
अर्थ- जो देवी संसार के सभी प्राणियों में बुद्धि के रूप में स्थित हैं। उनको नमस्कार है, बारम्बार नमस्कार है।
विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं,
विश्वात्मिका धारयसीति विश्वं।
विश्वेशवंद्या भवती भवन्ति,
विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः।।
अर्थ- हे विश्वेश्वरि ! तुम विश्व का पालन करती हो। तुम विश्वरूप हो, इसलिए विश्व को धारण करती हो। तुम भगवान विश्वनाथ की भी वंदनीय हो। जो लोग भक्तिपूर्वक तुम्हें सिर झुकाते हैं। वे सम्पूर्ण विश्व को आश्रय देने वाले होते हैं।
प्रातः स्मरणीय श्लोक- Morning shlok
प्रातः स्मरामि भवभीतिमहार्तिनाशं
नारायणं गरुणवाहनमब्जनाभम्।
ग्राहाभिभूतवरवारणमुक्तिहेतुं
चक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम्।।
अर्थ– संसार के महान दुख को नष्ट करने वाले, मगर से गज को मुक्त करने वाले, चक्र धारण करने वाले और नए कमलदल के समान नेत्रों वाले, पद्मनाभ गरुण वाहन वाले भगवान नारायण का मैं प्रातः काल स्मरण करता हूँ।
ब्रम्हा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी
भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च।
गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः
कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्।।
अर्थ– ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, सूर्य, चन्द्र, मंगल, गुरु, बुध, शुक्र, शनि, राहु और केतु- ये सभी हमारे प्रातः काल को मंगलमय बनाएं।
भृगुर्वशिष्ठः क्रतुरंगिराश्च
मनुः पुलस्त्यः पुलहश्च गौतमः।
रैभ्यो मरीचिश्च्वनश्च दक्षः
कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्।।
अर्थ– भृगु, वशिष्ठ, क्रतु, अंगिरा, मनु, पुलस्त्य, पुलह, गौतम, रैभ्य, मरीचि, च्यवन और दक्ष ये समस्त ऋषिगण मेरे प्रातः काल को मंगलमय बनाएं।
पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथापः
स्पर्शी च वायुर्ज्वलितं च तेजः।
नभः सशब्दं महता सहैव
कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्।।
अर्थ– गंधयुक्त पृथ्वी, रसयुक्त जल, स्पर्शयुक्त वायु, प्रज्वलित अग्नि, सशब्द आकाश और महत्तत्व ये सभी मेरे प्रातः काल को मंगलमय बनाएं।
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः।।
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टम्।
जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः।।
अर्थ– अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान्, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम ये सातों दीर्घजीवी हैं। सात ये और आठवें मार्कण्डेय जी का जो नित्य स्मरण करता है। वह अकालमृत्यु से बचकर सौ वर्षों तक जीवित रहता है।
धर्मो विवर्धति युधिष्ठिरकीर्तनेन पापं प्रणश्यति वृकोदरकीर्तनेन।
शत्रुर्विनश्यति धनंजयकीर्तनेन माद्रीसुतौ कथयतां न भवन्ति रोगाः।।
अर्थ– युधिष्ठिर का नाम लेने से धर्म बढ़ता है। भीम के नाम से पाप नष्ट होता है। अर्जुन का नाम लेने से शत्रुओं का नाश होता है और नकुल-सहदेव का नाम लेने से रोगों का नाश होता है।
सोमनाथो वैद्यनाथो धन्वन्तरिरथाश्विनौ।
पञ्चैतान् यः स्मरेन्नित्यं व्याधिस्तस्य न जायते।।
अर्थ– सोमनाथ, वैद्यनाथ, धन्वन्तरि और दोनों अश्विनीकुमारों का प्रतिदिन स्मरण करने वाले को रोग नहीं होता।
कपिला कालिकेयो अनन्तो वासुकिस्तक्षकस्तथा।
पञ्चैतान् स्मरतो नित्यं व्याधिस्तस्य न जायते।।
अर्थ– कपिला, कालिकेय, शेषनाग, वासुकी और तक्षक- इनका नित्य स्मरण करने वाले को सर्प और किसी प्रकार के विष का भय नहीं होता।
रामलक्ष्मणौ सीता च सुग्रीवो हनुमान् कपिः।
पञ्चैतान स्मरतो नित्यं महाबाधा प्रमुच्यते।।
अर्थ– राम, लक्ष्मण, सीता, सुग्रीव और हनुमान इन पांचों का प्रतिदिन स्मरण करने वाले की बड़ी से बड़ी बाधा का नाश हो जाता है।
प्रातःस्नानं चरित्वाथ शुद्धे तीर्थे विशेषतः।
प्रातःस्नानाद्यतः शुद्ध्येत् कायो अयं मलिनः सदा।।
नोपसर्पन्ति वै दुष्टाः प्रातःस्नायिजनं क्वचित्।
दृष्टादृष्टफलं तस्मात् प्रातःस्नानं समाचरेत्।।
अर्थ– शुद्ध तीर्थ में सुबह ही स्नान करना चाहिए। यह मलपूर्ण शरीर शुद्ध तीर्थ में स्नान करने से शुद्ध होता है। प्रातः काल स्नान करने वाले के पास भूत प्रेत आदि दुष्ट नहीं आते। इस तरह दिखाई देने वाले फल जैसे शरीर की स्वच्छता और न् दिखाई देने वाले फल जैसे पाप नाश तथा पुण्य की प्राप्ति। ये दोनों प्रकार के फल प्रातः स्नान करने वाले को मिलते हैं।
अच्युतानंतगोविंदनामोच्चारणभेषजात ।
नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं वदाम्यहम्।।
अर्थ– अच्युत, अनंत, गोविंद भगवान के इन तीन नामों का उच्चारण रूपी औषधि से सारे रोग नष्ट हो जाते हैं। यह मैं सत्य सत्य कहता हूँ।
नाम्नोsस्य यावती शक्तिः पापनिर्दहने मम्।
तावत्कर्तुं न शक्नोति पातकं पातकी जनः।।
अर्थ– भगवान स्वयं कहते हैं कि सारे पापों को नष्ट करने की जितनी शक्ति मेरे नामस्मरण में है, उतने पाप कोई भी पापी कर ही नहीं सकता।