हिंदी कहानियों की श्रृंखला में आज प्रस्तुत है सलीका- कहानी। यह एक moral story है। जोकि हमे जीवन की सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा प्रदान करती है।
सलीका यानी सही तरीका। जैसे हर काम को करने का एक सलीका होता है। वैसे ही हर बात को कहने का भी एक सलीका होता है। हमेशा देश, काल, परिस्थिति के हिसाब से कही गयी बात ही कर्णप्रिय और प्रभावशाली होती है।
इसी पर एक बहुत रोचक, ज्ञानवर्धक एवं प्रेरणादायक लघुकहानी प्रस्तुत है-
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सलीका- कहानी
पंजाब के महाराणा रणजीतसिंह के नाम से कौन परिचित नहीं है ? वे बड़े प्रतापी और शूरवीर राजा थे। उनकी वीरता इतिहास के पन्नों में अंकित है। वे बड़े नियमनिष्ठ, धार्मिक, प्रजापालक एवं दुष्टों के लिए बेहद कठोर थे।
साथ ही सज्जनों के लिए बड़े ही मृदुल और विनम्र भी थे। एक बार वे अपने किले के सम्मन बुर्ज में बैठे माला जप रहे थे। उनके पास ही प्रसिद्ध मुस्लिम संत अजीमुद्दीन औलिया भी बैठे तस्बीह (माला) फेर (जप) रहे थे।
हिंदुओं और मुसलमानों के माला फेरने का ढंग अलग-अलग होता है। जैसे हिन्दू लोग माला जपते समय माला के मनकों को अंदर की ओर करते हैं। जबकि मुस्लिम लोग इसके ठीक उलटा करते है।
वे माला को बाहर की ओर फेरते हैं। अजीमुद्दीन भी माला उसी प्रकार बाहर को फेर रहे थे। अचानक राजा का ध्यान इस ओर गया। उन्होंने संत अजीमुद्दीन से पूछा-
“फकीर साहब ये बताइए कि माला अंदर की ओर फेरना सही है या बाहर की ओर।” सुनने में तो यह सवाल बड़ा साधारण है, लेकिन उस समय की स्थिति के अनुसार बेहद जटिल था।
अगर औलिया जी कहते कि बाहर की तरफ फेरना सही है तो इससे हिंदुओं का तरीका गलत साबित होता। यदि वे कहते अंदर की तरफ तो इससे उनका धर्म गलत सिद्ध होता। इसके अलावा अगर कोई जवाब न देते तो इससे राजा का अपमान होता।
उस समय संत निजामुद्दीन औलिया ने उत्तर दिया, “महाराज ! माला फेरने के दो उद्देश्य होते हैं- बाहर की अच्छाइयों को अपने अंदर समाहित करना और दूसरा अपनी बुराइयों को बाहर निकालना। उद्देश्य के अनुसार ही माला फेरना सही है।”
उन्होंने आगे कहा, “आप हमेशा प्रजा की अच्छाई या भलाई सोचते हो। एक अच्छे, सत्गुणी राजा बनने का प्रयत्न करते हो। इसलिए आपका अंदर की ओर माला फेरना सही है। जिससे अच्छाइयां आपके अंदर समाहित हों।”
“मैं एक संत हूँ। मेरा ध्यान अपनी बुराइयों को बाहर निकालने में लगा रहता है। जिससे मैं ईश्वर को प्राप्त कर सकूं। इसलिए मैं बाहर की ओर माला फेरता हूँ ताकि मेरे अंदर की बुराइयां बाहर निकलें। जिससे मेरा चित्त शुध्द हो सके।”
संत की बात सुनकर महाराजा रणजीत सिंह बहुत प्रसन्न हुए। उस दिन से संत निजामुद्दीन औलिया का मान उनकी नजरों में और बढ़ गया।
सीख- Moral
यह कहानी हमे शिक्षा देती है कि वाणी का प्रयोग हमे बहुत सोच समझकर और सलीके से करना चाहिए। क्योंकि-
जीभ जोग अरु भोग, जीभ बहु रोग बढ़ावै। जीभ धरावै नाम जीभ सब काम करावै। जीभ स्वर्ग लै जाय, जीभ सब नरक देखावै।। निज जीभ होंठ एकत्र करि बांट सहारे तौलिए। बेताल कहे बिक्रम सुनो निज जीभ सँभारे बोलिये।।
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