कर्म और भाग्य में कौन महत्वपूर्ण है यह विषय हमेशा से ही विवादित रहा है. कोई भाग्य को बड़ा बताता है तो कोई कर्म को. गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी रामचरितमानस में लिखा है-
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा /
जो जस करे तो तस फल चाखा //
जिससे यह प्रतीत होता है कि कर्म ही सबसे महत्वपूर्ण है. परन्तु रामचरितमानस में ही यह भी लिखा है-
होइह सोई जो राम रचि राखा /
को करि तरक बढ़ावे शाखा //
अत: हम पुन: उसी स्थिति में आ गए कि हम किसका अनुसरण करें कर्म का अथवा भाग्य का. चलिए हम इस प्रश्न का उत्तर जानने का प्रयत्न करते हैं.
वास्तव में कर्म और भाग्य एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं हैं. ये परस्पर सम्बंधित हैं एवं इनके मध्य सम्बन्ध है क्रिया-प्रतिक्रिया का. अर्थात कर्म क्रिया है और भाग्य उसकी प्रतिक्रिया. इस सम्पूर्ण प्रकृति का परिचालन एक स्वत: संचालित प्रक्रिया के द्वारा होता है-
अन्नाद्भावन्ति भूतानि पार्जन्यादन्न सम्भवः।
यज्ञाद्भावन्ति पर्जन्या यज्ञह कर्मसमुद्भवः।।
अर्थात जीव अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से होता है और वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ कर्म से होते हैं.
जिस प्रकार हम किसी कार्य के लिए सॉफ्टवेयर का निर्माण कर उसे इंस्टाल करते हैं. उसके बाद सारी प्रकियाएं स्वत: संचालित होती हैं. उसी प्रकार ईश्वर ने इस प्रकृति के सञ्चालन के नियम निर्धारित किये हैं एवं सम्पूर्ण प्रकृति उन्ही के अनुसार स्वयं संचालित होती है.
जीवन एवं मृत्यु एक सतत प्रक्रिया है जो निरंतर चलती रहती है. जन्म से लेकर म्रत्यु पर्यंत मनुष्य जो भी कर्म या क्रिया करता है वे प्रतिक्रिया स्वरुप उसके भाग्य में परिणत हो जाती है. उसी के अनुसार आगामी जीवन में उसे अच्छे या बुरे फल प्राप्त होते हैं.
यहाँ यह विचारणीय है कि कई बार लोग आजीवन अच्छे कर्म करने के उपरांत भी दुःख भोगते हैं जबकि कुछ लोग बुरे कर्म करने के उपरांत भी सुखी जीवन व्यतीत करते हैं. इसके लिए पूर्व में बताया जा चुका है कि जिस प्रकार जीवन म्रत्यु सतत प्रक्रिया है उसी प्रकार कर्मफल भोग भी एक सतत प्रक्रिया है जो कि मनुष्य के पूर्व के समस्त जन्मों के कर्म पर आधारित है.
कर्मफल भोग का निर्धारण हम अपनी सुविधानुसार नहीं कर सकते कि कब हमें अच्छे कर्मों का फल भोगना है और कब बुरे कर्मों का. मनुष्य भाग्य का निर्धारण तीन प्रकार के कर्मों के आधार पर होता है-
संचित कर्म
हमारे पूर्व के समस्त जन्मों के संचित किये हुए कर्म इस श्रेणी में आते हैं. हमें अपने आगामी समस्त जन्मों में इन्ही कर्मों के फल का भोग करना है.
प्रारब्ध कर्म
पिछले अनेक जन्मों के कर्मफल मनुष्य एक ही जीवन में नहीं भोग सकता. अत: जो जन्म वह लेने जा रहा है उसके जन्म से पूर्व उसके संचित कर्मों का एक छोटा भाग उस जन्म में भोग हेतु निर्धारित किया जाता है, वही उसका प्रारब्ध कर्म है.जिसके अनुसार उसकी जाति, कुल, गोत्र, एवं उस जन्म के भाग्य का निर्धारण होता है.
क्रियमाण कर्म
जन्म के उपरांत वर्तमान में मनुष्य जो कर्म करता है वही उसका क्रियमाण कर्म है. जो आगे चलकर संचित कर्म में परिणत हो जाता है. संचित कर्म की यह विशेषता है कि इसके दो भाग होते हैं इसके एक भाग का फल इसी जीवन में भोगना पड़ता है दूसरा संचित कर्म में सम्मिलित हो जाता है.
जैसे यदि कोई व्यक्ति किसी की हत्या कर देता है तो उसका फल जेल जाने आदि अनेक कष्टों के रूप में तत्काल भोगना पड़ेगा. रामचरित मानस में एक कथा आती है कि जब इंद्र के पुत्र जयंत के द्वारा सीताजी के पैर में चोंच मारी गयी तो उसका फल अपनी एक आँख गवांकर उसे तत्काल भोगना पड़ा था-
निज कृत कर्म जनित फल पायहुँ।
अब प्रभु पाहि सरन तकि आयहुँ।।
अत: सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रियमाण कर्म ही हैं. जिसके द्वारा हम अपने प्रारब्ध में कुछ हद तक परिवर्तन कर सकते हैं. क्योंकि अनेक जन्मों के क्रियमाण कर्म ही संचित कर्म होते हैं. यदि संचित कर्मों में परिवर्तन होता है तो प्रारब्ध में भी निश्चित ही परिवर्तन होगा. क्योंकि प्रारब्ध का निर्माण भी संचित कर्मों के एक हिस्से से ही होता है.
अत: भाग्य को बदला जा सकता है.लेकिन यह आवश्यक नहीं है की मनुष्य कोई अच्छा कार्य करे और उसका फल तुरंत उसे मिल जाय. यह हो सकता है कि आपकी कर्मनिष्ठा, सतत सत्कर्मों में प्रवृत्ति एवं भक्ति से प्रसन्न होकर ईश्वर आपके कर्मभोग के चक्र को थोड़े समय के लिए शिथिल कर दें अथवा सांत्वना या पुरुस्कार स्वरूप कुछ अच्छे कर्मों के भोग को वरीयता प्रदान कर दें
परन्तु यह अटल सत्य है कि अपने कर्मों का सम्पूर्ण भोग आपको करना ही होगा. क्योंकि कर्म बंधन से तो स्वयं भगवान भी नहीं बच सके. गीता में भगवान् ने स्वयं कहा है-
न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषुलोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्तएव च कर्माणि।।
हे पार्थ तीनों लोकों में मेरे द्वारा करने लायक कुछ भी नहीं है फिर भी मैं कर्म में प्रवृत्त होता हूँ.
अत: प्रकृति में कोई भी कर्म बंधन से परे नहीं है. बिना कर्म किये कोई एक क्षण भी नहीं रह सकता है.गीता में ही कहा गया है-
नहि कश्चितक्षणमपि जाततिष्ठट्य कर्मकृत।
कार्यतेह्यवशः कर्म सर्व: प्रकृतिजैगुणै:।।
अर्थात बिना कर्म किये कोई एक क्षण भी नहीं रह सकता है, सभी प्रकृति से पैदा हुए गुणों से विवश होकर कर्म करते हैं.
अत: कर्मरत रहिये. सहज कर्म सदोष भी हो सकता है. परन्तु उसका उद्देश्य निर्मल होना चाहिए. भगवान् ने कहा है कि-
सहजम कर्म न कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत।
सर्वरम्भाहिदोषेण धूमेनाग्निरिवावृता।।
हे अर्जुन, दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए. क्योंकि जैसे अग्नि धुंए से आवृत्त होती है वैसे ही हर कर्म किसी न किसी दोष से युक्त होता है.
कर्म की महत्ता का प्रमाण इससे अधिक क्या हो सकता है-
काहू न कोऊ सुख दुख कर दाता।
निजकृत कर्म भोग सब भ्राता।।
अत: वर्तमान के कर्म ही हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं. सो सत्कर्म में रत रहिये और अपना भाग्य बदलिए.
आशा है की कर्म और भाग्य नामक इस लेख से आपको कर्म और भाग्य सम्बन्धी निर्णयात्मक द्रष्टिकोण प्राप्त हुआ होगा.