कैलाश गौतम हिंदी खड़ी बोली और लोकभाषा के प्रसिद्ध कवि थे। उनकी कविताओं में ग्रामीण जीवन और परंपराओं का जैसा जीवंत चित्रण देखने को मिलता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। आज हम आपके लिए कैलाश गौतम की प्रसिद्ध कविताएं लेकर आए हैं।
कैलाश गौतम का संछिप्त परिचय
कैलाश गौतम का जन्म चंदौली जनपद के डिग्घी नामक गाँव में 8 जनवरी सन 1944 को हुआ था। वे इलाहाबाद (प्रयागराज) आकाशवाणी में विभागीय कलाकार के रूप में कार्यरत थे। जनभाषा के कवि के रूप में उन्होंने अनेक कालजयी रचनाएं दीं।
उनकी रचनाएं सच्चे ग्रामीण परिवेश से परिचित कराती हैं। हास्य व्यंग्य के माध्यम से गंभीर मुद्दों को प्रकट करना उनकी विशेषता थी। उन्हें हिंदी के कई प्रतिष्ठित सम्मानों से भी नवाजा गया । जिनमे शारदा सम्मान, महादेवी वर्मा सम्मान, राहुल संस्कृतायन सम्मान प्रमुख हैं।
प्रयाग प्रवास में वे गांडीव और आज नामक दैनिक पत्रों से भी जुड़े रहे। सन्मार्ग के लिए वे नियमित स्तंभ लिखते थे। उनका निधन 9 दिसम्बर 2006 को हुआ था।
कवि कैलाश गौतम की प्रसिद्ध कविताएं
वैसे तो उनकी बहुत सारी रचनाएं हैं और सभी एक से बढ़कर एक हैं। परंतु यहां पर कुछ प्रसिद्ध कविताओं को प्रस्तुत किया जा रहा है-
अमौसा का मेला
प्रयागराज के संगम पर अमावस्या को गंगास्नान और वहां लगे मेले का सुंदर और सजीव चित्रण उस कविता में किया गया है। दूर दूर के गांवों से लोग किस प्रकार किस मनः स्थिति में आते हैं। इस लोक व्यवहार का अप्रतिम और जीवंत चित्रण इस कविता में किया गया है। कैलाश गौतम की यह कविता बहुत प्रसिद्ध है–
भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा,
धरम में, करम में, सनल गाँव देखा.
अगल में, बगल में सगल गाँव देखा,
अमौसा नहाये चलल गाँव देखा।
एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा,
कान्ही पर बोरा, कपारे पर बोरा.
कमरी में केहू, औ कथरी में केहू,
रजाई में केहू, दुलाई में केहू।
आजी रँगावत अहै गोड़ देखा,
हँसत हँउवे बब्बा, तनी जोड़ देखा,
घुंघटवे से पूछे पतोहिया कि अईया,
गठरिया में अब का रखाई बतईहा।
एहर हउवे लुग्गा, ओहर हउवे पूड़ी,
रामायण के लग्गे ह मँड़ुआ के डूंढ़ी,
चाउर अ चिउरा किनारे के ओरी,
नयका चपलवा अचारे के ओरी।
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला।।
मचल हउवे हल्ला, चढ़ावा उतारा,
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारा
एहर गुर्री-गुर्रा, ओहर लुर्री-लुर्रा,
औ बीचे में हउवे शराफत से बोला।
चपायल ह केहू, दबायल ह केहू,
घंटन से ऊपर टँगायल ह केहू,
केहू हक्का-बक्का, केहू लाल-पीयर,
केहू फनफनात हउवे कीरा के नीयर।
बप्पा रे बप्पा, अ दईया रे दईया,
तनी हम्मे आगे बढ़े देता भईया,
मगर केहू दर से टसकले ना टसके,
टसकले ना टसके, मसकले ना मसके।
छिड़ल ह हिताई-मिताई के चरचा,
पढ़ाई-लिखाई-कमाई के चरचा,
दरोगा के बदली करावत हौ केहू,
लग्गी से पानी पियावत हौ केहू।
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला।।
गुलब्बन के दुलहिन चलै धीरे धीरे
भरल नाव जइसे नदी तीरे तीरे.
सजल देह जइसे हो गवने के डोली,
हँसी हौ बताशा शहद हउवे बोली।
देखैली ठोकर बचावेली धक्का,
मने मन छोहारा, मने मन मुनक्का,
फुटेहरा नियरा मुस्किया मुस्किया के,
निहारे ली मेला चिहा के चिहा के.
सबै देवी देवता मनावत चलेली,
नरियल प नरियल चढ़ावत चलेली,
किनारे से देखैं, इशारे से बोलैं
कहीं गाँठ जोड़ें कहीं गाँठ खोलैं।
बड़े मन से मन्दिर में दर्शन करेली,
आ दूधै से शिवजी के अरघा भरेली,
चढ़ावें चढ़ावा आ कोठर शिवाला
छुवल चाहें पिण्डी लटक नाहीं जाला।
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला।।
एही में चम्पा-चमेली भेंटइली,
बचपन के दूनो सहेली भेंटइली,
ई आपन सुनावें, ऊ आपन सुनावें,
दुनो आपन गहना-गदेला गिनावें।
असो का बनवलू, असो का गढ़वलू,
तू जीजा क फोटो ना अब तक पठवलू,
ना ई उन्हें रोकैं ना ऊ इन्हैं टोकैं,
दुनो अपना दुलहा के तारीफ झोंकैं।
हमैं अपने सासू के पुतरी तूं जाना,
हमैं ससुरजी के पगड़ी तूं जाना,
शहरियो में पक्की, देहतियो में पक्की,
चलत हउवे टेम्पू, चलत हउवे चक्की।
मने मन जरै आ गड़ै लगली दुन्नो,
भयल तू तू मैं मैं, लड़ै लगली दुन्नो,
साधू छुड़ावैं, सिपाही छुड़ावैं,
हलवाई जइसे कड़ाही छुड़ावैं।
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला।
करौता के माई के झोरा हेराइल,
बुद्धू के बड़का कटोरा हेराइल,
टिकुलिया के माई टिकुलिया के जोहै,
बिजुरिया के माई बिजुरिया के जोहै।
मचल हउवै हल्ला त सगरो ढुढ़ाई,
चबैला के बाबू चबैला के माई,
गुलबिया सभत्तर निहारत चलेले,
मुरहुआ मुरहुआ पुकारत चलेले।
छोटकी बिटउआ के मारत चलेले,
बिटिइउवे प गुस्सा उतारत चलेले।
गोबरधन के सरहज किनारे भेंटइली,
गोबरधन के संगे पँउड़ के नहइली,
घरे चलत पाहुन दही गुड़ खिआइब,
भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइब।
उहैं फेंक गठरी, परइले गोबरधन,
ना फिर फिर देखइले धरइले गोबरधन।
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला।।
केहू शाल, स्वेटर, दुशाला मोलावे,
केहू बस अटैची के ताला मोलावे,
केहू चायदानी पियाला मोलावे,
सोठौरा के केहू मसाला मोलावे।
नुमाइश में जा के बदल गइली भउजी,
भईया से आगे निकल गइली भउजी,
आयल हिंडोला मचल गइली भउजी,
देखते डरामा उछल गइली भउजी।
भईया बेचारु जोड़त हउवें खरचा,
भुलइले ना भूले पकौड़ी के मिरचा,
बिहाने कचहरी कचहरी के चिंता,
बहिनिया के गौना मशहरी के चिंता।
फटल हउवे कुरता टुटल हउवे जूता,
खलीका में खाली किराया के बूता,
तबो पीछे पीछे चलल जात हउवें,
गदोरी में सुरती मलत जात हउवें।
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला।।
कचहरी न जाना
न्यायिक प्रकिया और कोर्ट कचहरी में साधारण व्यक्ति का क्या हाल होता है। इसका इस कविता में बहुत सुंदर चित्रण किया गया है। कैलाश गौतम की प्रसिद्ध कविताएं में से यह मेरी पसंदीदा कविताओं में से एक है-
भले डांट घर में तू बीबी की खाना,
भले जैसे-तैसे गिरस्ती चलाना,
भले जा के जंगल में धूनी रमाना,
मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना।
कचहरी न जाना, कचहरी न जाना।।
कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है,
कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है,
अहलमद से भी कोई यारी नहीं है,
तिवारी था पहले तिवारी नहीं है।।
कचहरी की महिमा निराली है बेटे,
कचहरी वकीलों की थाली है बेटे,
पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे,
यहाँ पैरवी अब दलाली है बेटे।।
कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे,
यही ज़िन्दगी उनको देती है बेटे,
खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं,
सिपाही दरोगा चरण चूमते हैं।।
कचहरी में सच की बड़ी दुर्दशा है,
भला आदमी किस तरह से फँसा है,
यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे,
यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे।।
कचहरी का मारा कचहरी में भागे,
कचहरी में सोये कचहरी में जागे,
मरा जा रहा है गवाही में ऐसे,
है तांबे का हंडा सुराही में जैसे।।
लगाते-बुझाते सिखाते मिलेंगे,
हथेली पर सरसों उगाते मिलेंगे,
कचहरी तो बेवा का तन देखती है,
कहाँ से खुलेगा बटन देखती है।।
कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है,
उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है,
है बासी मुँह घर से बुलाती कचहरी,
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी।।
मुकदमे की फाइल दबाती कचहरी,
हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी,
कचहरी का पानी जहर से भरा है,
कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है।।
मुकदमा बहुत पैसा खाता है बेटे,
मेरे जैसा कैसे निभाता है बेटे,
दलालों नें घेरा सुझाया-बुझाया,
वकीलों नें हाकिम से सटकर दिखाया।।
धनुष हो गया हूँ मैं टूटा नहीं हूँ,
मैं मुट्ठी हूँ केवल अंगूंठा नहीं हूँ,
नहीं कर सका मैं मुकदमे का सौदा,
जहाँ था करौंदा, वहीं है करौंदा।।
कचहरी का पानी कचहरी का दाना,
तुम्हें लग न जाये तू बचना बचाना,
भले और कोई मुसीबत बुलाना,
कचहरी की नौबत कभी घर न लाना।।
कभी भूल कर भी न आँखें उठाना,
न आँखें उठाना, न गर्दन फँसाना,
जहाँ पांडवों को नरक है कचहरी,
वहीं कौरवों को सरग है कचहरी।।
गांव गया था, गांव से भागा
इस कविता में कवि ने ग्रामीण परिवेश में आये परिवर्तन पर तीखा व्यंग्य किया है–
गाँव गया था, गाँव से भागा ।।
रामराज का हाल देखकर,
पंचायत की चाल देखकर,
आँगन में दीवाल देखकर,
सिर पर आती डाल देखकर,
नदी का पानी लाल देखकर,
और आँख में बाल देखकर,
गाँव गया था, गाँव से भागा ।।
सरकारी स्कीम देखकर,
बालू में से क्रीम देखकर,
देह बनाती टीम देखकर,
हवा में उड़ता भीम देखकर,
सौ-सौ नीम हक़ीम देखकर,
गिरवी राम-रहीम देखकर,
गाँव गया था, गाँव से भागा ।।
जला हुआ खलिहान देखकर,
नेता का दालान देखकर,
मुस्काता शैतान देखकर,
घिघियाता इंसान देखकर,
कहीं नहीं ईमान देखकर,
बोझ हुआ मेहमान देखकर,
गाँव गया था, गाँव से भागा ।।
नए धनी का रंग देखकर,
रंग हुआ बदरंग देखकर,
बातचीत का ढंग देखकर,
कुएँ-कुएँ में भंग देखकर,
झूठी शान उमंग देखकर,
पुलिस चोर के संग देखकर,
गाँव गया था, गाँव से भागा ।।
बिना टिकट बारात देखकर,
टाट देखकर भात देखकर,
वही ढाक के पात देखकर,
पोखर में नवजात देखकर,
पड़ी पेट पर लात देखकर,
मैं अपनी औकात देखकर,
गाँव गया था, गाँव से भागा ।।
नए नए हथियार देखकर,
लहू-लहू त्योहार देखकर,
झूठ की जै-जैकार देखकर,
सच पर पड़ती मार देखकर,
भगतिन का शृंगार देखकर,
गिरी व्यास की लार देखकर,
गाँव गया था, गांव से भागा।।
मुठ्ठी में कानून देखकर,
किचकिच दोनों जून देखकर,
सिर पर चढ़ा ज़ुनून देखकर,
गंजे को नाख़ून देखकर,
उज़बक अफ़लातून देखकर,
पंडित का सैलून देखकर,
गाँव गया था, गाँव से भागा ।
पप्पू की दुलहिन- कैलाश गौतम की प्रसिद्ध कविताएं
यह भी कैलाश गौतम जी की प्रतिनिधि कविताओं में से एक है। एक आधुनिक बहू के चरित्र का चित्रण प्रस्तुत कविता में दर्शनीय है–
पप्पू के दुल्हिन की चर्चा कालोनी के घर घर में,
पप्पू के दुल्हिन पप्पू के रखै अपने अंडर में।
पप्पुवा इंटर फेल और दुलहिया बीए पास हौ भाई जी,
औ पप्पू अस लद्धड़ नाहीं, एडवांस हौ भाई जी।
कहे ससुर के पापा जी औ कहे सास के मम्मी जी,
माई डियर कहे पप्पू के, पप्पू कहैं मुसम्मी जी।।
बहू सुरक्षा समीति बनउले हौ अपने कॉलोनी में,
बहुतन के ई सबक सिखौले हौ अपने कॉलोनी में।
औ कॉलोनी के कुल दुल्हनिया एके प्रेसिडेंट कहैंली,
और एकर कहना कुल मानेली एकर कहना तुरत करैली।
पप्पू के दुल्हिन के नक्शा कालोनी में हाई हौ,
ढंग एकर बेढब हौ सबसे रंग एके एकजाई हो।।
औ कॉलोनी के बुढ़िया बुढ़वा दूरे से परनाम करैले,
भीतरे भीतर सास डरैले भीतरे भीतर ससुर डरैले।
दिन में सूट रात में मैक्सी, न घुंघटा न अँचरा जी,
देख देख के हसैं पड़ोसी मिसराइन औ मिसरा जी।
अपने एक्को काम न छुए कुल पप्पु से करवावैले।
पप्पुओ जान गयल हौ काहे माई डियर बोलावैले।।
छूट गइल पप्पू के बीड़ी औ चौराहा छूट गइल,
छूट गइल मंडली रात के ही ही हा हा छूट गइल।
हरदम अप टू डेट रहैले मेकअप दोनों जून करैले,
रोज बिहाने मलै चिरौंजी गाले पे निम्बुवा रगरैले।
पप्पू ओके का छेड़िहैं ऊ खुद छेड़ेले पप्पू के,
जइसे फेरे पान पनेरिन ऊ फेरेले पप्पू के।।
पप्पू के जेबा एक दिन लव लेटर ऊ पाई गइल,
लव लेटर ऊ पाई गइल, पप्पू के शामत आई गइल।
मुंह पर छीटा मारै उनके आधी रात जगावैले,
इ लव लेटर केकर हउवे ओनही से पढ़वावैले।
लव लेटर के देखते पप्पुवा पहिले तो सोकताइ गइल,
झपकी जैसे फिर से आइल पप्पुवा उहै गोताई गइल।।
मेहर छींटा मारे फिर फिर पप्पुवा आँख न खोलत हौ,
संकट में कुकरे के पिल्ला जैसे कूँ कूँ बोलत हौ।
जैसे कत्तो घाव लगल हौ हाँफ़त औ कराहत हौ,
इम्तहान के चिट एस चिटिया मुंह में घोंटल चाहत हौ।
सहसा हँसे ठठाकर पप्पुवा फिर गुरेर के देखलस,
अँधियारन में एक तीर ऊ खूब साधकर मरलस।।
अच्छा देखा एहर आवा बात सुना तू अइसन हउवे,
लव लेटर लिखै के हमरे कॉलेज में कम्पटीसन हउवे।
हमरो कहना मान मुसमिया रात आज के बीतै दे,
सबसे बढ़िया लव लेटर पे पुरस्कार हौ, जीतै दे।।
बड़की भौजी
जब देखो तब बड़की भौजी हँसती रहती हैं,
हँसती रहती है कामों में फँसती रहती हैं ।
झरझर झरझर हँसी होंठ पर झरती रहती हैं,
घर का खाली कोना भौजी भरती रहती हैं ।।
डोरा देह कटोरा आँखें जिधर निकलती हैं,
बड़की भौजी की ही घंटों चर्चा चलती हैं ।
ख़ुद से बड़ी उमर के आगे झुककर चलती हैं,
आधी रात गए तक भौजी घर में खटती हैं ।।
कभी न करती नखरा-तिल्ला सादा रहती हैं,
जैसे बहती नाव नदी में वैसे बहती हैं ।
सबका मन रखती है घर में सबको जीती हैं,
गम खाती है बड़की भौजी गुस्सा पीती हैं ।।
चौका-चूल्हा, खेत-कियारी, सानी-पानी में,
आगे-आगे रहती है कल की अगवानी में ।
पीढ़ा देती पानी देती थाली देती हैं,
निकल गई आगे से बिल्ली गाली देती हैं ।।
भौजी दोनों हाथ दौड़कर काम पकड़ती हैं,
दूध पकड़ती दवा पकड़ती दाम पकड़ती हैं ।
इधर भागती उधर भागती नाचा करती हैं,
बड़की भौजी सबका चेहरा बाँचा करती हैं ।।
फ़ुर्सत में जब रहती है खुलकर बतियाती है,
अदरक वाली चाय पिलाती, पान खिलाती है ।
भईया बदल गए पर भौजी बदली नहीं कभी,
सास के आगे उल्टे पल्ला निकली नहीं कभी ।।
हारी नहीं कभी मौसम से सटकर चलने में,
गीत बदलने में है आगे राग बदलने में ।
मुँह पर छींटा मार-मार कर ननद जगाती हैं,
कौवा को ननदोई कहकर हँसी उड़ाती हैं ।।
बुद्धू को बेमशरफ कहती भौजी फागुन में,
छोटी को कहती है गरी-चिरौंजी फागुन में ।
छ्ठे-छमासे गंगा जाती पुण्य कमाती हैं,
इनकी-उनकी सबकी डुबकी स्वयं लगाती हैं ।।
आँगन की तुलसी को भौजी दूध चढ़ाती हैं,
घर में कोई सौत न आए यही मनाती है ।
भइया की बातों में भौजी इतना फूल गईं,
दाल परोसकर बैठी रोटी देना भूल गईं ।।