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ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रेरक प्रसंग

by staff

प्रेरक प्रसंगों की श्रंखला में आज हम आपके लिए ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रेरक प्रसंग लेकर आये हैं. ईश्वरचंद्र विद्यासागर बंगाल के एक प्रसिद्ध दार्शनिक, शिक्षाविद, समाजसुधारक, लेखक और प्रकांड विद्वान् थे. उनकी विद्वता से प्रभावित होकर होकर संस्कृत कालेज ने उन्हें शिक्षणकाल में ही विद्यासागर की उपाधि दे दी थी. उन्होंने बालिका शिक्षा, विधवा विवाह का समर्थन किया.

यहाँ तक की अपने पुत्र का विवाह भी उन्होंने एक विधवा के साथ ही किया था. वैसे तो उनका पूरा जीवन ही प्रेरक प्रसंगों से भरा था. जिनमें से कुछ का वर्णन यहाँ किया जा रहा है.

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रेरक प्रसंग

अनुपम दान

यह बंगाल की बात है। एक दिन एक वृद्ध भिखारिन ने एक दरवाजे पर भीख के लिए आवाज लगाई। एक बालक बाहर निकला। बुढ़िया ने उससे कुछ देने की याचना की। वृद्ध भिखारिन की दयनीय दशा देखकर बालक अपनी माँ के पास जाकर बोला, “माँ! दरवाजे पर एक बूढ़ी भिखारिन मुझे बेटा कहकर कुछ मांग रही है।”

माँ ने कहा, “जाओ, उसे कुछ चावल दे दो।” लेकिन बालक बोला, “चावल से उसका क्या भला होगा? आपने जो सोने के कंगन पहने हैं। यही दे दीजिए। मैं बड़ा होकर आपको दूसरे बनवा दूंगा।”

माँ ने तुरंत अपने कंगन उतारकर दे दिए। लड़के ने बूढ़ी भिखारिन को वे कंगन दे दिए। बड़ा होकर वह बालक कलकत्ते का बहुत प्रसिद्ध विद्वान और समाज सुधारक बना। एक दिन उसने अपनी माँ से कहा, “माँ अपने हाथों की नाप दे दो। आपके लिए कंगन बनवा दूं।”

ऐसे महापुरुषों की माएं भी महान होती हैं। उन्होंने उत्तर दिया, “बेटा! अब मेरी कंगन पहनने की उम्र नहीं है। मेरे कंगन बनवाने की जगह तू कलकत्ते के गरीबों के लिए एक अस्पताल और पढ़ाई के लिए कालेज खुलवा दे। जहां गरीबों को निःशुल्क सुविधाएं मिलें।

पुत्र ने अपनी माँ की इच्छानुसार व्यवस्था कर दी। वह पुत्र थे महान विद्वान और समाजसुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर।

निःस्वार्थ मदद- ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रेरक प्रसंग

विद्यासागरजी सबकी मदद करने को आतुर रहते थे। किसी का दुख उनसे देखा नहीं जाता था। उनकी मदद निःस्वार्थ होती थी। साथ ही वे मदद इस प्रकार करते थे कि मदद पाने वाले को किसी तरह की शर्मिन्दगी न महसूस हो। एक घटना इस प्रकार है।

एक बार किसी ने उन्हें बताया कि एक मोहल्ले में एक व्यक्ति की मृत्यु हो गयी है। जोकि बहुत ही ईमानदार और स्वाभिमानी था। उसने या उसके परिवार ने कभी किसी के सामने हाथ नही फैलाया। चाहे उन्हें भूखे ही सोना पड़ा हो।

आज उस परिवार के पास खाने की छोड़ो अंतिम क्रिया करने के भी पैसे नहीं हैं। लेकिन बताने वाले ने यह भी बताया कि वे किसी प्रकार का दान स्वीकार नहीं करेंगे।

विद्यासागर जी बड़ी उलझन में पड़ गए कि आखिर मदद करें तो कैसे? उन्होंने ईश्वर से उस परिवार की मदद करने की प्रार्थना की।

उसी समय एक व्यक्ति मृतक के घर पहुंचा। उसकी विधवा के सामने दुखी मन से हाथ जोड़कर बोला, “मेरा अपराध क्षमा करिए। मैंने आपके पति से कुछ पैसे उधार लिए थे। लेकिन मन में चोर आ जाने के कारण मैं पैसे लौटाने में आनाकानी कर रहा था।

आज उनकी मृत्यु के बाद मेरी आँखें खुल गईं हैं। मैं बहुत शर्मिंदा हूँ। ये कुछ पैसे मैं लाया हूँ। बाकी धीरे धीरे चुका दूंगा।”

इतना कहकर पैसे वहीं रखकर वह आदमी चुपचाप चला गया। मृतक की पत्नी ने ईश्वर को धन्यवाद दिया और अपने पति का अंतिम संस्कार किया। उसके बाद वह व्यक्ति महीने में एक बार आता और इतने रुपये दे जाता कि उनका महीने भर का खर्च आराम से चल जाता।

एक बार महिला के एक जानने वाले ने उससे पूछा, “तुम्हारा खर्च कैसे चलता है?” महिला ने बताया, “एक आश्चर्यजनक किस्सा है। मेरे पति ने किसी को पैसे उधार दिए थे। वह व्यक्ति हर महीने आता है और बड़ी विनम्रता से कुछ पैसे देकर हाथ जोड़कर चला जाता है।”

“जब भी मैं पूछती हूँ कि अब कितने पैसे देने बाकी हैं। वह कहता है थोड़े और बचे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि मेरे पति ने कभी इस लेन-देन का जिक्र हमसे नहीं किया। न ही मैंने कभी उस व्यक्ति को पहले कभी अपने पति के साथ देखा था।”

जानने वाले ने उस महिला से ईश्वरचंद्र विद्यासागर का हुलिया बताकर पूछा कि क्या वह कर्जदार ऐसा दिखता है? महिला ने जवाब दिया, “हाँ। क्या तुम उसे जानते हो?

उसने कहा, ” पूरा कलकत्ता उसे जानता है। वह हर जरूरतमंद का कर्जदार है। जो भी असहाय है, गरीब है या जिसे मदद की जरूरत है। ऐसे हर व्यक्ति से उसका लेनदेन है।”

ऐसे थे परदुःखकातर, परोपकारी ईश्वरचंद विद्यासागर।

सच्ची मदद

ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रेरक प्रसंग अनेक हैं। उनमें से एक यह है-

सन 1865 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा। जिसका सर्वाधिक प्रभाव दैनिक मजदूरों और छोटे कामकाजी लोगों पर पड़ा। एक बार विद्यासागरजी बर्दवान गए। वहां एक दुबला-पतला लड़का उनके पास आया। भूख की पीड़ा उसके चेहरे से साफ दिखाई दे रही थी।

लेकिन साथ ही स्वाभिमान की आभा भी उसके चेहरे पर थी। उसने ईश्वरचंद्र जी से पैसा भीख में मांगने की बजाय उधार में मांगा। विद्यासागर जी उसके स्वाभिमान से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने मुग्ध भाव से लड़के से कहा, “मान लो, मैं तुम्हें चार पैसे दूं तो तुम उनका क्या करोगे?”

लड़के ने कहा, “मैं बहुत दिक्कत में हूँ। कृपया मुझसे मजाक न करें।” विद्यासागरजी बोले, “बेटे! मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ। मैं सचमुच जानना चाहता हूँ, कि उन पैसों का तुम क्या करोगे?”

लड़के ने उत्तर दिया, “दो पैसों का कुछ खाने के लिए खरीदूंगा और दो पैसे माँ को दूंगा।” ईश्वरबाबू ने फिर पूछा, “अगर मैं तुम्हें चार आने दूं तो?” लड़का रो पड़ा और मुंह फेरकर चल पड़ा। विद्यासागर जी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोले बिना जवाब दिए नहीं जाने दूंगा।

लड़के ने बेमन से जवाब दिया- “दो आने दो दिन के भोजन के लिए खर्च करूंगा। बाकी दो आने से कुछ खरीदकर उसे चार आने में बेच दूंगा। उन चार आनों से फिर कुछ धंधा करूंगा।” विद्यासागर जी ने उस लड़के को एक रुपया दिया। पैसे लेकर उन्हें धन्यवाद देते हुए वह लड़का चला गया।

कई सालों बाद विद्यासागरजी का फिर बर्दवान आना हुआ। वहां एक युवक आकर उनसे बड़े प्रेम से मिला। बहुत आग्रह करके वह उन्हें अपनी दुकान पर ले गया। वहां उसने उनकी खूब आवभगत की। तब विद्यासागर जी ने उससे कहा, “मैंने तुम्हें पहचाना नहीं।” तुम कौन हो?”

युवक ने भावुक स्वर में कई वर्ष पूर्व एक रुपये की मदद वाली घटना बताई। साथ ही कहा- “उन पैसों से मैंने काम शुरू किया और धीरे-धीरे यह दुकान बना ली। ईश्वरबाबू ने देखा कि उसकी दुकान काफी बड़ी थी और अच्छी चल रही थी।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी बहुत प्रसन्न हुए। अपनी मदद का सदुपयोग और मेहनत के लिए उन्होंने लड़के बहुत प्रसंशा की।

साधारण रहन-सहन

यह उन दिनों की बात है। जब ईश्वरचंद्र विद्यासागर पूरे बंगाल में प्रसिद्ध हो चुके थे। हुगली जिले के एक सुदूर गांव में विद्यासागर जी के आने का कार्यक्रम तय हुआ। उनका कार्यक्रम एक स्कूल में तय हुआ।

उन दिनों बड़े या प्रसिद्ध लोगों को देखने के लिए लोगों की भीड़ लग जाती थी। उसी तरह ईश्वरबाबू को देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था। निर्धारित समय से अधिक समय हो चुका था। लेकिन अभी विद्यासागरजी नहीं आये थे। फिर भी लोग कड़ी धूप में उनका इंतजार कर रहे थे।

आखिरकार ईश्वरबाबू आ गए। लोग उनकी एक झलक पाने के लिए धक्कामुक्की करने लगे। इतने में एक बुढ़िया भीड़ के बीच से निकलकर आगे आयी और सामने खड़े एक व्यक्ति से पूछा, “कहाँ है विद्यासागर?” उस व्यक्ति ने थोड़ा आगे खड़े एक व्यक्ति की ओर इशारा कर दिया।

बुढ़िया आश्चर्य से उन्हें देखती रह गयी। उसने कहा, “इनको देखने के लिए हम इतनी देर से धूप में खड़े हैं। ये तो कहीं से बड़े आदमी नहीं लग रहे। न तो इनके पास गाड़ी है। न ही अमीरों वाला पहनावा ही है। ये कैसे बड़े आदमी हैं?”

विद्यासागरजी उसकी बात सुकर मुस्कुरा दिए। ऐसे ही साधारण वेश में असाधारण व्यक्ति थे ईश्वरचंद्र विद्यासागरजी। वे साधारण सी धोती, चादर और चप्पल पहनते थे। जो भी मिल जाता वह खा लेते थे। लेकिन जब किसी को देना होता था तो बाजार से अच्छी से अच्छी चीज खरीदकर लाते थे।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रेरक प्रसंग यहीं समाप्त नहीं होते। उनका पूरा जीवन ही ऐसे प्रेरक प्रसंगों से भरा है। वे दीनबंधु थे। सबके लिए उनके हृदय में प्रेम और करुणा भरी पड़ी थी। उनके बारे में माइकल मधुसूदन दत्त का यह कथन पूर्णतया सत्य है-

विद्यार सागर तुमि एई जाने जने।
दयार सागर तुमि एई जाने मने।।

तुम विद्या के सागर हो, यह तो सब जानते हैं। लेकिन तुम दया के सागर हो, यह तो केवल मेरा मन जानता है।

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