भारत के संत की इस श्रृंखला में आज हम आपके लिए आदि शंकराचार्य– adi shankaracharya की जीवन गाथा लेकर आये हैं। जिन्होंने सनातन धर्म का पुनर्गठन और पुनरुद्धार किया। यह कहानी उस समय की है, जब हिन्दू धर्म अनेक कुरीतियों और पाखण्डों से ग्रस्त हो चुका था।
आदि शंकराचार्य
सनातन धर्म के विद्वानों ने इतनी जटिलता उत्पन्न कर दी थी कि जनसामान्य के लिए धर्म को समझना और पालन करना दुरूह हो चुका था। फलस्वरूप हिन्दू धर्म पतनोन्मुख था। इस अवसर पर एक नवीन धर्म का उदय हो चुका था। जिसके सिद्धान्त सरल और जनसामान्य की भाषा में थे।
उस धर्म का नाम बौद्ध धर्म था। जिसका प्रचार प्रसार बहुत तेजी से हो रहा था। बौद्ध धर्म के अनुयायियों की संख्या भी बहुत तेजी से बढ़ रही थी। ऐसा लग रहा था कि सनातन धर्म का स्थान बौद्ध धर्म ले लेगा और अनादि काल से चला आ रहा सनातन धर्म अपने अंतिम दौर में है।
उस समय आर्यावर्त के आकाश में उदय होता है एक ऐसे जाज्वल्यमान नक्षत्र का। जिसे भगवान शंकर का अवतार कहा जाता है। जिसके तेज ने भारत में बढ़ रहे बौद्ध धर्म के प्रभाव को रोक दिया। उस आदिगुरु ने सनातन धर्म का नियमन, पुनर्गठन, पुनरुत्थान और पुनरस्थापन किया।
एक अनाथ की भांति संचालित धर्म में देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार यथोचित परिवर्तन हेतु एक प्रक्रिया का निर्धारण किया। उन दिव्य पुरुष को आज हम आदिगुरु शंकराचार्य के नाम से जानते हैं। जिनके लिखे गए ग्रंथ विद्वता के अप्रतिम प्रतिमान हैं।
जिन्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक माना जाता है। जिनके तर्कों का प्रतिउत्तर पूरे भारत के किसी विद्वान के पास नहीं था। जिन्होंने 8 वर्ष की अल्पायु मे सन्यास लेकर अपने 32 वर्ष के अल्प जीवनकाल मे इतना यश कमा लिया कि जब तक संसार में सनातन धर्म रहेगा तब तक आदि शंकराचार्य का नाम भी जीवित रहेगा।
आइये आज हम उन आदिगुरु, महान सन्यासी और विद्वान शिरोमणि आदि शंकराचार्य (jagadguru adi shankaracharya) की सम्पूर्ण जीवनी, व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचय प्राप्त करते हैं।
आदि शंकराचार्य का जीवन परिचय
प्रारम्भिक जीवन
आदि शंकराचार्य (adi shankaracharya) का जन्म 788 ई0 में केरल के कालड़ी नामक ग्राम में निम्बूदरीपाद ब्राम्हण के घर हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम आर्यम्बा था। बहुत समय तक संतान न होने के कारण इनके माता पिता ने भगवान शिव की घोर आराधना की।
फलस्वरूप भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर स्वप्न में दर्शन दिए और पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया। लेकिन साथ ही एक शर्त भी रखी कि या तो दीर्घायु किन्तु साधारण पुत्र ले लो। अथवा अल्पायु किन्तु महाज्ञानी पुत्र का चयन कर लो। इनके पिता ने दूसरा विकल्प चुना।
कहते हैं कि स्वयं भगवान शिव ने उनके घर पुत्र रूप में जन्म लिया। माता पिता ने इनका नाम शिवजी के नाम पर शंकर रखा। इनकी विलक्षणता का अनुमान इसी बात से लग जाता है कि इन्होंने मात्र दो वर्ष की आयु में संस्कृत और तीन वर्ष में मलयालम पढ़ना सीख लिया था। इसका उल्लेख “माधवैः शंकर विजया” नामक पुस्तक में है।
पांच वर्ष की आयु में उपनयन संस्कार के पश्चात ये अध्ययन हेतु गुरुकुल गए। जहाँ मात्र दो वर्षों में ही इन्होंने वेद, वेदांग, पुराण और उपनिषदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। सात वर्ष की अल्पायु में ही इनके पिता का देहांत हो गया।
इसके बाद इनकी मां ने इनका पालन पोषण किया। आठ वर्ष की आयु में इन्होंने सन्यास हेतु मां से अनुमति मांगी। किन्तु एकमात्र संतान होने के कारण मां ने इन्हें सन्यास की आज्ञा देने से मना कर दिया।
इसके बाद ईश्वर की लीला से एक दिन नदी में स्नान करते समय शंकर का पैर एक मगरमच्छ ने पकड़ लिया। इन्होंने मां से कहा कि मगरमच्छ ने मेरा पैर पकड़ लिया है। अगर आप मुझे सन्यास की आज्ञा दें तभी मैं अपना पैर छुड़ाने के प्रयत्न करूंगा।
मजबूरी में मां ने आज्ञा दे दी। आश्चर्यजनक बात यह हुई कि उसी समय मगर ने शंकर का पैर छोड़ दिया।
सन्यासी जीवन
आठ वर्ष की अल्पायु में ही शंकर सन्यास ग्रहण कर भारत भ्रमण पर निकल पड़े। चलते हुए रमणीक हिमालय क्षेत्र में बद्रीनाथ धाम पहुंचकर इन्हें संत गुरु गोविंद भगवत्पाद मिले। गोविंद भगवत्पाद से मिलकर इन्हें लगा कि ये ही इनके गुरु हैं। शंकर ने उनसे शिष्य रूप में स्वीकार करने की प्रार्थना की।
गोविंद भगवत्पाद ने प्रश्न किया, “तुम कौन हो ?” शंकर ने उत्तर दिया, “न तो मैं अग्नि हूँ, न जल और न ही मैं वायु हूँ। न ही मैं शून्य अथवा मिट्टी ही हूँ। मैं तो सत्य सनातन आत्मा हूँ, जो सर्वव्याप्त है।”
गोविंद भगवत्पाद इतने प्रसन्न हुए कि तुरंत ही इन्हें अपना शिष्य बना लिया। उन्होंने शंकर को अद्वैतवाद की शिक्षा दी। उनके सानिध्य में शंकर ने वेद, वेदांगों का सांगोपांग अध्ययन किया और शंकर से जगतगुरु शंकराचार्य (jagadguru adi shankaracharya) बने।
काशी प्रवास
गुरु की आज्ञा से शंकराचार्य काशी पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने भगवान शिव की आराधना की। प्रसन्न होकर भगवान विश्वनाथ ने उन्हें दर्शन दिए और क्षीण होते सनातन धर्म के पुनरुत्थान का दायित्व सौंपा।
आदि शंकराचार्य (adi shankaracharya) ने तत्कालीन परिस्थितियों का विस्तृत विश्लेषण किया। उस समय हिन्दू धर्म में कई मत प्रचिलित हो चुके थे। हिन्दू मतावलम्बी एवं विद्वतजन भी वैदिक सिद्धांतों से अलग धर्म की व्याख्या करने लगे थे। साथ ही जैन, बौद्ध आदि अनेक धर्मों ने हिन्दू धर्म की अलग और भ्रामक व्याख्याएं प्रस्तुत कर दीं थी।
इनके खण्डन एवं वास्तविक सनातन धर्म के प्रचार प्रसार और पुनर्स्थापना हेतु आचार्य शंकर ने दो प्रमुख कार्य किये। पहला वेद, वेदांगों की सही एवं सरल व्याख्या हेतु ग्रंथों की रचना। जिसके अंतर्गत उन्होंने प्रमुख ग्रंथों की सही व्याख्या हेतु भाष्य एवं टीकाएँ लिखीं। जिनमें ब्रम्हसूत्र, गीता और उपनिषदों पर भाष्य प्रमुख हैं । जिन्हें प्रस्थानत्रयी के नाम से जाना जाता है।
इसके बाद आदि शंकराचार्य (adi shankaracharya) ने दूसरा कार्य किया विद्वानों को वेद के अद्वैत दर्शन को समझाना।
शास्त्रार्थ द्वारा अद्वैतवाद की स्थापना
इसके लिए उन्होंने पूरे भारत में भ्रमण कर बौद्ध, जैन और हिन्दू धर्म के 80 से अधिक विद्वानों से शास्त्रार्थ करके तर्कों द्वारा उनके मतों का खंडन कर वेदों में वर्णित अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिस्थापित किया। उन्होंने तत्कालीन मूर्धन्य विद्वानों जैसे भास्कर भट्ट, धर्मगुप्त, उदयनाचार्य, कुमारिल, मयूरा हर्ष, अभिनव गुप्त, दंडी, मुरारी मिश्र, प्रभाकर आदि को शास्त्रार्थ में पराजित कर उन्हें वेदनिहित अद्वैतवाद की ओर मोड़ा।
मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ
उनके शास्त्रार्थों में सर्वाधिक प्रसिद्ध बिहार में महिष्मती के मूर्धन्य मीमांसक विद्वान मंडन मिश्र से किया गया शास्त्रार्थ है। कहते हैं कि मण्डन मिश्र इतने प्रकांड विद्वान थे कि उनके यहां पालतू तोता भी संस्कृत के श्लोक बोलता था।
आदि शंकराचार्य (adi shankaracharya) से उनका शास्त्रार्थ 17 दिनों तक चला। जब वे हारने लगे तो उनकी विदुषी पत्नी उदयाभारती शास्त्रार्थ हेतु प्रस्तुत हुई। जब वे भी शंकराचार्य को पराजित करने में विफल रहीं तो उन्होंने कामशास्त्र के प्रश्न पूछने आरम्भ किये।
बाल ब्रम्हचारी होने के कारण शंकराचार्य (shankaracharya) उनके उत्तर देने में असमर्थ थे। तब उन्होंने एक माह का समय मांगा। वे वापस काशी लौटे और वहां परकाया प्रवेश विद्या द्वारा कश्मीर के मृत राजा अमरूक की देह में प्रविष्ट हुए।
उस काया में रहकर उन्होंने सांसारिक भोग विलास एवं कामशास्त्र का व्यवहारिक ज्ञानार्जन किया। उसके बाद वे पुनः मण्डन मिश्र के यहां पहुंचे और सपत्नीक उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित किया।
शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन- द्वैत एवं अद्वैत का समन्वय
अद्वैत अर्थात निर्गुण ब्रम्ह के प्रबल प्रचारक होते हुए भी उन्होंने द्वैतवाद या सगुण उपासना पद्धति को पूर्ण मान्यता प्रदान की। इसके संबंध में एक कथा है कि वे पहले केवल निर्गुण ब्रम्ह को ही मानते थे। एक बार काशी में वे अपने शिष्यों के साथ प्रातः काल स्नान के लिए जा रहे थे।
तब रास्ते में एक महिला अपने पति की मृत देह को रखकर विलाप कर रही थी। उनके शिष्यों ने उसे रास्ते से शव को हटाने को कहा। लेकिन उसने कोई ध्यान नहीं दिया। तब स्वयं शंकराचार्य ने उससे मृत देह को हटाने का अनुरोध किया।
इस पर उस महिला ने उत्तर दिया, “आप इस देह से कहिए कि वह हट जाए।” शंकराचार्य बोले कि ऐसा कहाँ सम्भव है ? तब महिला बोली, “क्यों नहीं सम्भव ? आपका अद्वैत दर्शन तो यही कहता है कि सब कुछ स्वतः संचालित है। यह मृत देह भी स्वयं हट जाएगी।”
यह सुनकर शंकराचार्य (shankaracharya) को झटका लगा। वे तुरंत उसी स्थान पर समाधि में बैठ गए। समाधि की अवस्था में उन्होंने देखा कि स्वयं पराम्बा, जगतजननी माँ पार्वती उस महिला के रूप में उन्हें सगुण ब्रम्ह और भक्ति की महिमा समझाने आयी हैं।
इसके बाद आचार्य शंकर ने भक्ति को भी ब्रम्ह की साधना के एक मार्ग के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने शिव, विष्णु एवं शक्ति के कई स्त्रोतों की रचना की। जो रचना कौशल, गेयता और पदविन्यास की दृष्टि से अप्रतिम हैं।
सामाजिक कुरीतियों का विरोध
आदि शंकराचार्य महान दार्शनिक, परम ज्ञानी सन्त के साथ साथ समाजसुधारक भी थे। तत्कालीन समाज में प्रचलित कई कुरीतियों का उन्होंने प्रबल विरोध भी किया। जिसमें जाति प्रथा, छुआछूत और पशुबलि प्रथा मुख्य हैं।
छुआछूत के प्रति उनके दृष्टिकोण में परिवर्तन की एक कथा प्रचलित है। उनके काशी प्रवास के प्रारम्भिक दिनों में गंगास्नान को जाते समय रास्ते में उन्हें एक चांडाल (शव जलाने का कार्य करने वाला) मिला। उन दिनों चांडाल को सबसे नीच माना जाता था।
उसका स्पर्श वर्जित था, विशेषतः ब्राम्हणों के लिए। आचार्य शंकर ने उसे रास्ते से हटने के लिए कहा। इस चांडाल ने उत्तर दिया, “आप किसे हटने के लिए कह रहे हो? यदि इस देह को, तो यह उन्हीं पंचतत्वों से बनी है, जिनसे आपका शरीर निर्मित है। यदि इस काया में अवस्थित आत्मा से आपका अभिप्राय है तो यह तो नित्य, शाश्वत एवं देह के अवगुणों से मुक्त है।”
“दूसरी बात आप प्रत्येक जड़-चेतन में स्थित उस ब्रम्ह को अश्पृश्य मानकर उसका अपमान कर रहे हैं। इसलिए आप अब्राम्हण एवं अश्पृश्य हैं। अतः आप मेरे रास्ते से हट जाएं।”
एक चांडाल के मुख से ऐसे विद्वतापूर्ण गूढ़ वचन सुनकर आदि शंकराचार्य उसके चरणों में नतमस्तक हो गए और उसे अपना गुरु मान लिया। परन्तु जब उन्होंने अपना मस्तक ऊपर उठाया तो वहां चांडाल के स्थान पर स्वयं जगतगुरु, समस्त प्रकार के ज्ञान के स्रोत, काशीधिराज, देवाधिदेव महादेव खड़े थे।
उन्होंने आदिगुरु को आशीर्वाद दिया और सनातन धर्म की कुरीतियों एवं प्रपंचों से रक्षा का आदेश प्रदान किया। उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर आचार्य शंकर ने सनातन धर्म के उत्थान हेतु आजीवन कार्य किया।
एक अन्य विवरण है कि सन्यास की आज्ञा देते समय उनकी मां ने वचन लिया था कि उनका अंतिम संस्कार आदिगुरु स्वयं करेंगे। यद्यपि सन्यासी के लिए यह पूर्णतः वर्जित कर्म है। तथापि उन्होंने प्रचलित परम्परा को तोड़कर अपनी मां का अंतिम संस्कार किया। वस्तुतः वे एक क्रांतिकारी समाजसुधारक भी थे।
चार पीठों की स्थापना
सनातन धर्म को प्रत्येक कालखण्ड में निर्देशित, निरूपित एवं अनुशासित करने हेतु आदि शंकराचार्य ने भारतवर्ष के चारों कोनों पर चार पीठों की स्थापना की। दक्षिण में रामेश्वरम (तमिलनाडु) में श्रृंगेरी का शारदापीठ, उत्तर में बद्रिकाश्रम (उत्तराखंड) में ज्योतिर्पीठ, पूर्व में जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) में गोवर्धनपीठ तथा पश्चिम में द्वारिकापुरी (गुजरात) में कालीमठ। ये धर्म पीठ भारतवर्ष को एक सूत्र में बांधने का भी कार्य करते हैं।
आदि शंकराचार्य के कुछ चमत्कार
शंकराचार्य जी (shankaracharya) भगवान शिव के अवतार माने जाते हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन ही एक चमत्कार है। तथापि कुछ लौकिक चमत्कारों का वर्णन प्रस्तुत है-
निर्धन ब्राम्हणी के घर धनवर्षा
बारह वर्ष की अल्पायु में वे भिक्षाटन करते हुए एक ब्राम्हणी के घर पहुँचे। दरवाजे पर “मातु भिक्षां देहि” का उद्घोष किया। वह ब्राम्हणी अत्यंत निर्धन थी। द्वार पर याचक रूप में एक बटुक सन्यासी और स्वयं की दयनीय आर्थिक स्थिति देखकर वह रो पड़ी। पूरे घर में छान मारा लेकिन देने लायक कुछ नही मिला सिवाय एक सूखे आंवले को छोड़कर।
अपना सर्वस्व धन एक सूखा आंवला लेकर वह बाहर निकली और रोते हुए उस सूखे आंवले को सन्यासी बालक के भिक्षापात्र में डाल दिया। सन्यासी उस भिक्षा से द्रवित हो उठा। सर्वज्ञ सन्यासी ने योगबल से देखा तो उस महिला के भाग्य में प्रबल निर्धन योग था। विधि ने उसके जीवन में धन का कोई लेख नहीं लिखा था।
किन्तु वह सन्यासी कोई साधारण भिक्षुक तो था नहीं। वह तो महान योगी, शिवावतार आदिगुरु शंकराचार्य थे। जो उस सूखे आंवले की भिक्षा का प्रतिफल देने के लिए विधि के लेख को भी पलटने का निश्चय कर चुके थे।
धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी को लक्ष्य कर उनके कंठ से स्वरलहरी प्रवाहित हो उठी-अंगम् हरे पुलक भूषणमाश्रयन्तीं भ्रृगांगनेव मुकुलाभरणं तमालं। अंगीकृताखिल विभूतिरपांगलीला मांगल्यदास्तु मम् मंगलदेवतायाः।।……………..
इस प्रकार सत्रह श्लोको के मधुर, अनुपम एवं अपूर्वलिखित स्तोत्र की रचना कर दी। स्तोत्र पाठ पूर्ण होते ही उस निर्धन ब्राम्हणी के आंगन में स्वर्ण की वर्षा होने लगी। आचार्य शंकर विरचित उस स्तोत्र का नाम कनकधारा स्तोत्र पड़ा।
नदी का रुख मोड़ना
उनके बचपन में उनकी माँ प्रतिदिन पेरियार नदी में स्नान करती थीं। पेरियार नदी में स्नान के बिना वे अन्न जल कुछ भी ग्रहण नहीं करती थीं। यह उनका प्रतिदिन का नियम था। पेरियार नदी उनके गांव से कुछ मील दूर थी।
एक बार नदी में स्नान के लिए जाते समय रास्ते में उनकी मां मूर्छित होकर गिर पड़ीं। सूचना पाकर शंकर किसी प्रकार उनको स्नान कराकर घर ले आये। उसी समय उन्होंने निश्चय किया कि अब पेरियार नदी मेरे गांव से होकर ही प्रवाहित होगी।
अपनी साधना के बल पर उन्होंने पेरियार नदी का रुख मोड़ दिया। पेरियार नदी उनके गांव ही नहीं बल्कि उनके घर के पास से बहने लगी। आज भी पेरियार नदी कालड़ी ग्राम से होकर ही बहती है।
आदि शंकराचार्य की शिक्षाएं / सिद्धान्त- adi shankaracharya teachings
उन्होंने प्रमुखतः अद्वैतवाद का प्रचार प्रसार किया। तथापि मूर्तिपूजा को भी उन्होंने ब्रम्ह प्राप्ति का एक मार्ग माना। उनका मुख्य कथन था कि “ब्रम्ह सत्य जगत मिथ्या” अर्थात ईश्वर ही सत्य है। यह संसार एक प्रपंच या झूठ है।
शंकराचार्य ने वेदों में वर्णित साधना पद्धति का अनुसरण करने का संदेश दिया। वेदों एवं उपनिषदों के सार तत्व की व्याख्या उन्होंने अपने ग्रंथों में की।
शंकराचार्य की प्रमुख रचनाएँ
आदिगुरू शंकराचार्य (adi shankaracharya) की प्रमुख रचनाओं में शीमद्भगवतगीता, ब्रम्हसूत्र एवं उपनिषदों पर भाष्य हैं। जो इन्होंने ज्योतिर्मठ की व्यास गुफा में बैठकर लिखे हैं। इन्हें प्रस्थानत्रयी के नाम से भी जाता है।
ये ग्रंथ विश्व में हिन्दू दर्शन के महानतम ग्रंथ हैं। इसके अतिरिक्त आदिगुरु ने अनेक छोटे बड़े ग्रंथों एवं स्तोत्रों की रचना की। जो निम्नवत हैं-
अस्टोत्तरसहस्रनामावली, उपदेशसहस्री, द्वादशपंजरिकास्तोत्रं, तत्वविवेकाख्यम, दत्तात्रेय स्तोत्रं, चर्पटपंजरिकास्तोत्रं,
पंचदशी ग्रंथ
परापूजास्तोत्रं, प्रपंचसार, विद्यानंद, विषयानंद, ब्रम्हानंदे योगानंद, महावाक्य विवेक, ब्रम्हानंदे आत्मानंद, ब्रम्हानंदे अद्वैतानंद, ध्यानदीप, नाटकदीप, कूटस्थदीप, चित्रदीप, तृप्तिदीप, द्वैतविवेक, पंचकोशविवेक, पंचमहाभूतविवेक, तत्वविवेक।
सर्ववेदांतसिद्धान्तसारसंग्रह, लघुवाक्यवृती, विवेकचूडामणि, साधनपंचकम, भवान्यष्टकम।
भाष्य
ईशोपनिषद भाष्य, ऐतरेयोपनिषद भाष्य, छान्दग्योपनिषद भाष्य, प्रश्नोपनिषद भाष्य, केनोपनिषद भाष्य, कठोपनिषद भाष्य, तैत्तरीयोपनिषद भाष्य, बृहदारण्यकोपनिषद भाष्य, नृसिंहपूर्वतपन्युपनिषद भाष्य, मुन्डकोपनिषद भाष्य,
मंडूकोपनिषद कारिका भाष्य, हस्तामलकीय भाष्य, भगवद्गीता भाष्य, ब्रम्हसूत्र भाष्य, ललिता त्रिशती भाष्य, सनत्सुजातीय भाष्य, विष्णुसहस्रनामस्तोत्र भाष्य।
देवी देवताओं की स्तुति- adi shankaracharya stotras
गणेश पंचरत्नम, गणेश भुजांगम, कालभैरवष्टकम, दक्षिणमूर्ति स्तोत्रं, मृत्युंजय मानसिक पूजा,वेदसार शिवस्तोत्रं, शिव अपराध क्षमापन स्तोत्रं, आनंदलहरी, शिव पंचाक्षर स्तोत्रं, नक्षत्रमाला स्तोत्रं, शिवमानस पूजा, अन्नपूर्णाअष्टकम, कनकधारा स्तोत्रं, गौरी दशकम,
त्रिपुरसुंदरीअष्टकम, त्रिपुरसुंदरी मानसपूजा, महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रं, शारदाभुजंगप्रयात स्तोत्रं, अच्युताष्टकम, गोविंदाष्टकम, कृष्णाष्टकम, मणिकर्णिका अष्टकम, यमुनाष्टक, गंगाअष्टकम, उमामहेश्वरस्तोत्रं, अर्धनारीश्वर स्तोत्रं।
मृत्यु
शंकराचार्य जी ने 32 वर्ष की अल्पायु में सनातन धर्म को व्यवस्थित एवं पल्लवित करने के पश्चात केदारनाथ में इस नश्वर शरीर को त्याग दिया।
कहने के लिए तो उनका जीवन अल्पायु था। 32 वर्ष का कालखण्ड होता ही कितना है! परंतु अपने कर्म, दार्शनिक ग्रंथों एवं सनातन धर्म के लिए किए गए कार्यों के कारण उनकी यशायु सनातन धर्म की ही भाँति चिरन्तन बनी रहेगी।
जब तक सनातन धर्म रहेगा। तब तक आदिगुरु शंकराचार्य का नाम भी अक्षुण्ण रहेगा।