25 best prerak prasang छोटी प्रेरक कहानियों का संग्रह है। जो हमें जीवनोपयोगी शिक्षा प्रदान करते हैं। 25 prerak prasang in hindi में सर्वश्रेष्ठ चुनिंदा प्रेरणादायक प्रसंगों का संकलन है। जो निःसंदेह आपको पसंद आएगा। साथ ही प्रेरणा भी देगा।
1- प्रसन्नता का राज
एक बार एक संत एक पहाड़ी टीले पर बैठे बहुत ही प्रसन्न भाव से सूर्यास्त देख रहे थे। तभी दिखने में एक धनाढ्य व्यक्ति उनके पास आया और बोला, “बाबाजी! मैं एक बड़ा व्यापारी हूँ। मेरे पास सुख-सुविधा के सभी साधन हैं। फिर भी में खुश नहीं हूँ। आप इतना अभावग्रस्त होते हुए भी इतना प्रसन्न कैसे हैं? कृपया मुझे इसका राज बताएं।”
संत ने एक कागज लिया और उस पर कुछ लिखकर उस व्यापारी को देते हुए कहा, “इसे घर जाकर ही खोलना। यही प्रसन्नता और सुख का राज है।” सेठ जी घर पहुंचे और बड़ी उत्सुकता से उस कागज को खोला। उस पर लिखा था– जहां शांति और संतोष होता है, वहां प्रसन्नता खुद ही चली आती है।
इसलिये सुख और प्रसन्नता के पीछे भागने की बजाय जो है उसमें संतुष्ट रहना ही प्रसन्नता का राज है।
2- सरदार पटेल की कर्तव्यनिष्ठा# सेवा प्रेरक प्रसंग
सरदार बल्लभ भाई पटेल अदालत में एक मुकदमे की पैरवी कर रहे थे। मामला बहुत गंभीर था। थोड़ी सी लापरवाही भी उनके क्लायंट को फांसी की सजा दिला सकती थी। सरदार पटेल जज के सामने तर्क दे रहे थे। तभी एक व्यक्ति ने आकर उन्हें एक कागज थमाया। पटेल जी ने उस कागज को पढ़ा। एक क्षण के लिए उनका चेहरा गंभीर हो गया। लेकिन फिर उन्होंने उस कागज को मोड़कर जेब में रख लिया।
मुकदमे की कार्यवाही समाप्त हुई। सरदार पटेल के प्रभावशाली तर्कों से उनके क्लायंट की जीत हुई। अदालत से निकलते समय उनके एक साथी वकील ने पटेलजी से पूछा कि कागज में क्या था? तब सरदार पटेल ने बताया कि वह मेरी मेरी पत्नी की मृत्यु की सूचना का तार था। साथी वकील ने आश्चर्य से कहा कि इतनी बड़ी घटना घट गई और आप बहस करते रहे।”
सरदार पटेल ने उत्तर दिया, “उस समय मैं अपना कर्तव्य पूरा कर रहा था। मेरे क्लायंट का जीवन मेरी बहस पर निर्भर था।मेरी थोड़ी सी अधीरता उसे फांसी के तख्ते पर पहुंचा सकती थी। मैं उसे कैसे छोड़ सकता था? पत्नी तो जा ही चुकी थी। क्लायंट को कैसे जाने देता?”
ऐसे गंभीर और दृढ़ चरित्र के कारण ही वे लौहपुरुष कहे जाते हैं।
3- अस्पृश्य (अछूत) # शिक्षाप्रद प्रेरक प्रसंग
भगवान बुद्ध की धर्मसभा चल रही थी। गौतम बुद्ध ध्यानमग्न अवस्था में बैठे चिंतन कर रहे थे। तभी बाहर खड़ा कोई व्यक्ति चिल्लाकर बोला- “आज मुझे इस सभा में बैठने की अनुमति क्यों नहीं दी गयी है?” शांत सभा में उसके क्रोधित शब्द गुंजायमान हो उठे। लेकिन बुद्ध उसी प्रकार ध्यानमग्न ही रहे। उसने पुनः पहले से तेज आवाज में अपना प्रश्न दोहराया।
शिष्यों ने सभा की शांति को बनाये रखने के लिए भगवान बुद्ध से उसे अंदर आने की अनुमति देने के लिए कहा। बुद्ध ने कहा, ” वह अंदर बैठने के योग्य नहीं है। वह अछूत है।” शिष्य आश्चर्य में पड़ गए और बोले, “भगवन! आपके धर्म में तो जाति पांति को कोई स्थान नहीं है। कोई ऊंचा नीचा नहीं है। फिर यह अस्पृश्य या अछूत कैसे है?”
तब बुद्ध ने शिष्यों को समझाया, “आज यह क्रोध में है। क्रोध से शांति एवं एकाग्रता भंग होती है। क्रोधी व्यक्ति हिंसा करता है। अगर वह शारीरिक हिंसा से बच भी जाये तो मानसिक हिंसा अवश्य करता है।” “किसी भी कारण से क्रोध करने वाला मनुष्य अछूत है। उसे कुछ समय तक एकांत में रहकर पश्चाताप करना चाहिए। तभी उसे पता चलेगा कि अहिंसा महान कर्तव्य है। परम धर्म है।”
शिष्य समझ गए कि अश्पृश्यता क्या है और अछूत कौन है?
4- स्वभाव बदलो- prerak prasang
एक बार संत अबू हसन के पास एक व्यक्ति आया। वह बोला, “मैं गृहस्थी के झंझटों से बहुत परेशान हो गया हूँ। पत्नी-बच्चों से मेरी पटती नहीं है। मैं सब कुछ छोड़कर साधू बनना चाहता हूँ। आप अपने पहने हुए साधू वाले वस्त्र मुझे दे दीजिए। जिससे मैं भी आप की तरह साधू बन सकूं।”
उसकी बात सुनकर अबू हसन मुस्कुराकर बोले, “क्या किसी पुरुष के वस्त्र पहनकर कोई महिला पुरुष बन सकती है या किसी महिला के वस्त्र पहनकर कोई पुरुष महिला बन सकता है?” उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, “नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।”
संत ने उसे समझाया, “साधू बनने के लिए वस्त्र नहीं स्वभाव बदलना पड़ता है। अपना स्वभाव बदलो। फिर तुम्हे गृहस्थी भी झंझट नहीं लगेगी। बात उस व्यक्ति की समझ में आ गयी। उसने अपना स्वभाव बदलने का संकल्प लिया।
5- काम लेने का तरीका- ज्ञानवर्धक प्रेरक प्रसंग
एक खेत में कुछ मजदूर काम कर रहे थे। एक गहनता काम करने के बाद वे बैठकर आपस में गप्पें मारने लगे। यह देखकर खेत के मालिक ने उनसे कुछ नहीं कहा। उसने खुरपी उठायी और खुद काम में जुट गया। मालिक को काम करता देख मजदूर शर्म के मारे तुरंत काम में जुट गए। दोपहर में मालिक मजदूरों के पास जाकर बोला, “भाइयों! अब काम बंद कर दो। भोजन कर के आराम कर लो। काम बाद में होगा।”
मजदूर खाना खाने चले गए। थोड़ा आराम करके वे शीघ्र ही फिर काम पर लौट आये। शाम को छुट्टी के समय पड़ोसी खेत वाले ने उस खेत के मालिक से पूछा, ” भाई! तुम मजदूरों को छुट्टी भी देते हो। उन्हें डांटते भी नहीं हो। फिर भी तुम्हारे खेत का काम मेरे खेत से दोगुना कैसे हो गया। जबकि मैं लगातार अपने मजदूरों पर नजर रखता हूँ । डांटता भी हूँ और छुट्टी भी नहीं देता।”
तब पहले खेत के मालिक ने बताया, “भैया! मैं काम लेने के लिए सख्ती से अधिक स्नेह और सहानुभूति को प्राथमिकता देता हूँ। इसलिए मजदूर पूरा मन लगाकर काम करते हैं। इससे काम ज्यादा भी होता है और अच्छा भी।”
6- अंत का साथी
एक व्यक्ति के तीन साथी थे। उन्होंने जीवन भर उसका साथ निभाया। जब वह मरने लगा तो अपने मित्रों को पास बुलाकर बोला, “अब मेरा अंतिम समय आ गया है। तुम लोगों ने आजीवन मेरा साथ दिया है। मृत्यु के बाद भी क्या तुम लोग मेरा साथ दोगे?”
पहला मित्र बोला, “मैंने जीवन भर तुम्हारा साथ निभाया। लेकिन अब मैं बेबस हूँ। अब मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता।” दूसरा मित्र बोला, ” मैं मृत्यु को नहीं रोक सकता। मैंने आजीवन तुम्हारा हर स्थिति में साथ दिया है। मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि मृत्यु के बाद तुम्हारा अंतिम संस्कार सही से हो।
तीसरा मित्र बोला, “मित्र! तुम चिंता मत करो। में मृत्यु के बाद भी तुम्हारा साथ दूंगा। तुम जहां भी जाओगे, मैं तुम्हारे साथ रहूंगा।” मनुष्य के ये तीन मित्र हैं- माल (धन), इयाल (परिवार) और आमाल (कर्म)। तीनों में से मनुष्य के कर्म ही मृत्यु के बाद भी उसका साथ निभाते हैं।
7- सत्कर्म में आस्था# chote prerak prasang
एक नदी तट पर एक शिवमंदिर था। एक पंडितजी और एक चोर प्रतिदिन मंदिर आते थे। जहां पंडितजी फल फूल, दूध चंदन आदि से प्रतिदिन शिव जी की पूजा करते। वहीं चोर रोज भगवान को खरी खोटी सुनाता और अपने भाग्य को कोसता। एक दिन पंडितजी और चोर एक साथ मंदिर से बाहर निकले। निकलते ही चोर स्वर्णमुद्राओं से भरी एक थैली मिल गयी। जब कि ठीक उसी समय पंडितजी के पैर में एक कील घुस गई।
चोर थैली पाकर अत्यंत प्रसन्न था। जबकि पंडितजी पीड़ा से परेशान। लेकिन पंडितजी को कील की पीड़ा से अधिक इस बात का कष्ट था कि मेरे पूजा पाठ के बदले भगवान ने मुझे कष्ट दिया। जबकि इस चोर के कुकर्मों के बदले इसे स्वर्णमुद्राओं के रूप में पुरस्कार मिला।
तब मंदिर से आवाज आई, “हे पंडित! आज तुम्हारे साथ एक बड़ी दुर्घटना होने वाली थी। लेकिन तुम्हारे सत्कर्मों के कारण तुम केवल कील लगने की पीड़ा पाकर ही मुक्त हो गए। जबकि इस चोर के भाग्य में आज अपार धन संपत्ति प्राप्ति का योग था। लेकिन अपने कुकर्मों के कारण इसे केवल कुछ स्वर्णमुद्राओं ही मिलीं।”
कर्म से ही मनुष्य का भाग्य बनता बिगड़ता है। इसलिए सदैव सत्कर्मों में आस्था बनाये रखो।
8- ज्ञानपिपासु # विद्यार्थियों के लिए प्रेरक प्रसंग
एक गुरु के दो शिष्य थे। एक पढ़ाई में बहुत तेज और विद्वान था और दूसरा फिसड्डी। पहले शिष्य की हर जगह प्रसंशा और सम्मान होता था। जबकि दूसरे शिष्य की लोग उपेक्षा करते थे। एक दिन रोष में दूसरा शिष्य गुरू जी के जाकर बोला, “गुरूजी! मैं उससे पहले से आपके पास विद्याध्ययन कर रहा हूँ। फिर भी आपने उसे मुझसे अधिक शिक्षा दी।”
गुरुजी थोड़ी देर मौन रहने के बाद बोले, “पहले तुम एक कहानी सुनो। एक यात्री कहीं जा रहा था। रास्ते में उसे प्यास लगी। थोड़ी दूर पर उसे एक कुआं मिला। कुएं पर बाल्टी तो थी लेकिन रस्सी नही थी। इसलिए वह आगे बढ़ गया। थोड़ी देर बाद एक दूसरा यात्री उस कुएं के पास आया। कुएं पर रस्सी न देखकर उसने इधर-उधर देखा।पास में ही बड़ी बड़ी घास उगी थी। उसने घास उखाड़कर रस्सी बटना प्रारम्भ किया।
थोड़ी देर में एक लंबी रस्सी तैयार हो गयी। जिसकी सहायता से उसने कुएं से पानी निकाला और अपनी प्यास बुझा ली।” गुरु जी ने उस शिष्य से पूछा, “अब तुम मुझे यह बताओ कि प्यास किस यात्री को ज्यादा लगी थी?” शिष्य ने तुरंत उत्तर दिया कि दूसरे यात्री को।
गुरूजी फिर बोले, “प्यास दूसरे यात्री को ज्यादा लगी थी। यह हम इसलिए कह सकते हैं क्योंकि उसने प्यास बुझाने के लिए परिश्रम किया। उसी प्रकार तुम्हारे सहपाठी में ज्ञान की प्यास है। जिसे बुझाने लिए वह कठिन परिश्रम करता है। जबकि तुम ऐसा नहीं करते।”
शिष्य को अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था। वह भी कठिन परिश्रम में जुट गया।
9- जीवन का सच
बनारस में एक सड़क के किनारे एक बूढ़ा भिखारी बैठता था। वह उसकी निश्चित जगह थी। आने जाने वाले पैसे या खाने पीने को कुछ दे देते। इसी से उसका जीवन चल रहा था। उसके शरीर में कई घाव हो गए थे। जिनसे उसे बड़ा कष्ट था।
एक युवक रोज उधर से आते जाते समय उस भिखारी को देखता। एक दिन वह भिखारी के पास आकर बोला, “बाबा! इतनी कष्टप्रद अवस्था में भी आप जीने की आशा रख रहे हैं। जबकि आपको ईश्वर से मुक्ति की प्रार्थना करनी चाहिए।”
भिखरी ने उत्तर दिया, “मैं ईश्वर से रोज यही प्रार्थना करता हूँ। लेकिन वह मेरी प्रार्थना सुनता नहीं है। शायद वह मेरे माध्यम से लोगों को यह संदेश देना चाहता है कि किसी का भी हाल मेरे जैसा हो सकता है। मैं भी पहले तुम लोगों की तरह ही था।
अहंकारवश अपने किये कर्मों के कारण मैं यह कष्ट भोग रहा हूँ। इसलिए मेरे उदाहरण के द्वारा वह सबको एक सीख दे रहा है।” युवक ने बूढ़े भिखारी को प्रणाम किया और कहा,” आज आपने मुझे जीवन की सच्ची सीख दी दी। जिसे मैं कभी नहीं भूलूंगा।”
10- गुस्से की दवा- prerak prasang hindi me
एक स्त्री थी। उसे बात बात पर गुस्सा आ जाता था। उसकी इस आदत से पूरा परिवार परेशान था। उसकी वजह से परिवार में कलह का माहौल बना रहता था। एक दिन उस महिला के दरवाजे एक साधू आया। महिला ने साधू को अपनी समस्या बताई। उसने कहा, “महाराज! मुझे बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता है। मैं चाहकर भी अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं रख पाती। कोई उपाय बताइये।”
साधू ने अपने झोले से एक दवा की शीशी निकालकर उसे दी और बताया कि जब भी गुस्सा आये। इसमें से चार बूंद दवा अपनी जीभ पर डाल लेना। 10 मिनट तक दवा को मुंह में ही रखना है। 10 मिनट तक मुंह नहीं खोलना है, नहीं तो दवा असर नहीं करेगी।” महिला ने साधू के बताए अनुसार दवा का प्रयोग शुरू किया। सात दिन में ही उसकी गुस्सा करने की आदत छूट गयी।
सात दिन बाद वह साधू फिर उसके दरवाजे आया तो महिला उसके पैरों में गिर पड़ी। उसने कहा, “महाराज! आपकी दवा से मेरा क्रोध गायब हो गया। अब मुझे गुस्सा नहीं आता और मेरे परिवार में शांति का माहौल रहता है।”
तब साधू महाराज ने उसे बताया कि वह कोई दवा नहीं थी। उस शीशी में केवल पानी भरा था। गुस्से का इलाज केवल चुप रहकर ही किया जा सकता है। क्योंकि गुस्से में व्यक्ति उल्टा सीधा बोलता है। जिससे विवाद बढ़ता है। इसलिए क्रोध का इलाज केवल मौन है।
व्यर्थ का परिश्रम# परिश्रम पर प्रेरक प्रसंग
एक प्राचीन प्रेरक कथा है। एक बार एक संत समुद्र किनारे टहल रहे थे। तभी अचानक जोर का तूफान आया। तूफान के प्रभाव से ऊंची ऊँची समुद्र की लहरें उठने लगीं। उन लहरों के साथ सैकड़ों मछलियां बाहर आकर गिरने लगीं।
जल से बाहर हो जाने के कारण मछलियां तड़पने लगीं। स्वाभाविक दयालुता के कारण संत उन मछलियों को उठा उठाकर वापस समुद्र में फेंकने लगे। लेकिन मछलियों की संख्या सैंकड़ों में थी।
जिस कारण वे सबको वापस नहीं फेक सकते थे। तब भी वे अपने प्रयास में लगे रहे। वहां से गुजरने वाले एक व्यक्ति ने उन्हें देखकर कहा, “आप व्यर्थ का परिश्रम कर रहे हैं। आप सारी मछलियों को वापस नहीं फेंक सकते। फिर यह तो रोज का काम है। आपके इस परिश्रम से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।”
संत ने एक तड़पती मछली को उठाकर वापस समुद्र में फेंकते हुए कहा, “इसे तो फर्क पड़ेगा न। मेरे परिश्रम से इसका तो जीवन बच जाएगा यही बहुत है।”
सीख- Moral
अगर हमारे प्रयास से किसी एक का भी भला हो सके तो हमें जरूर प्रयास करना चाहिए।
ईश्वर सब देखता है # छोटे प्रेरक प्रसंग
एक बार लन्दन में शेक्सपियर के एक प्रसिद्ध नाटक का मंचन हो रहा था। उन दिनों संभ्रांत लोगों का नाटक देखना अच्छा नहीं माना जाता था। पुजारी, पादरियों के लिए तो यह पूर्णतः प्रतिबंधित था।
लन्दन के एक प्रसिद्ध चर्च के पादरी ने लोगों के मुंह से उस नाटक की बड़ी प्रसंशा सुनी थी। नाटक देखने की उसे बड़ी प्रबल इच्छा हुई। उसने सोचा सबसे छुपकर अगर थियेटर में प्रवेश कर लिया जाय। तो किसी को पता नहीं चलेगा।
इसलिए उसने थियेटर के मैनेजर को पत्र लिखा कि वह उसे पिछले दरवाजे से चुपचाप प्रवेश दिला दे। मैनेजर ने जवाब दिया, “महोदय ! मुझे खेद है कि मेरे यहाँ ऐसा कोइ दरवाजा नहीं है जो ईश्वर की नजर से छुपा हो।”
मैनेजर के जवाब से पादरी को जीवन की सबसे बड़ी सीख मिल गयी।
Moral- सीख
कोई काम करने से पहले यह जरूर सोचना चाहिए कि ईश्वर से कुछ भी छुपा नहीं है। वह सब देखता है।
मानव चरित्र # prerak prasang in hindi
एक बार एक जिज्ञासु व्यक्ति ने एक संत से प्रश्न किया, “महाराज, रंग रूप, बनावट प्रकृति में एक जैसे होते हुए भी कुछ लोग अत्यधिक उन्नति करते हैं। जबकि कुछ लोग पतन के गर्त में डूब जाते हैं।
संत ने उत्तर दिया, “तुम कल सुबह मुझे तालाब के किनारे मिलना। तब मैं तुम्हे इस प्रश्न का उत्तर दूंगा। अगले दिन वह व्यक्ति सुबह तालाब के किनारे पहुंचा। उसने देखा कि संत दोनों हाथ में एक एक कमंडल लिए खड़े हैं।
जब उसने ध्यान से देखा तो पाया कि एक कमंडल तो सही है। लेकिन दूसरे की पेंदी में एक छेद है। उसके सामने ही संत ने दोनों कमंडल तालाब के जल में फेंक दिए। सही वाला कमंडल तो तालाब में तैरता रहा।
लेकिन छेद वाला कमंडल थोड़ी देर तेरा। लेकिन जैसे जैसे उसके छेद से पानी अंदर आता गया। वह डूबने लगा और अंत में पूरी तरह डूब गया। संत ने जिज्ञासु व्यक्ति से कहा-
“जिस प्रकार दोनों कमंडल रंग-रूप और प्रकृति में एक समान थे। किंतु दूसरे कमंडल में एक छेद था। जिसके कारण वह डूब गया। उसी प्रकार मनुष्य का चरित्र ही इस संसार सागर में उसे तैराता है। जिसके चरित्र में छेद (दोष) होता है।
वह पतन के गर्त में चला जाता है। लेकिन एक सच्चरित्र व्यक्ति इस संसार में उन्नति करता है। जिज्ञासु को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया।
Moral- सीख
जीवन में चरित्र का महत्व सर्वाधिक है। इसलिए हमें चरित्रवान बनना चाहिए।
समस्याओं का बोझ # prerak prasang
एक प्रोफेसर कक्षा में दाखिल हुए। उनके हाथ में पानी से भरा एक गिलास था। उन्होंने उसे बच्चों को दिखाते हुए पूछा, “यह क्या है?” छात्रों ने उत्तर दिया, “गिलास।”
प्रोफेसर ने दोबारा पूछा, “इसका वजन कितना होगा ?” उत्तर मिला, “लगभग 100-150 ग्राम।” उन्होंने फिर पूछा, “अगर मैं इसे थोड़ी देर ऐसे ही पकड़े रहूं तो क्या होगा ?” छात्रों ने जवाब दिया, “कुछ नहीं।”
“अगर मैं इसे एक घण्टे पकड़े रहूं तो ?” प्रोफेसर ने दोबारा प्रश्न किया। छात्रों ने उत्तर दिया, “आपके हाथ में दर्द होने लगेगा।” उन्होंने फिर प्रश्न किया, “अगर मैं इसे सारा दिन पकड़े रहूं तो क्या होगा” ?
तब छात्रों ने कहा, “आपकी नसों में तनाव हो जाएगा। नसें संवेदनशून्य हो सकती हैं। जिससे आपको लकवा हो सकता है।” प्रोफेसर ने कहा, “बिल्कुल ठीक। अब यह बताओ क्या इस दौरान इस गिलास के वजन में कोई फर्क आएगा ?” जवाब था कि नहीं।
तब प्रोफेसर बोले, “यही नियम हमारे जीवन पर भी लागू होता है। यदि हम किसी समस्या को थोड़े समय के लिए अपने दिमाग में रखते हैं। तो कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अगर हम देर तक उसके बारे में सोचेंगे तो वह हमारे दैनिक जीवन पर असर डालने लगेगी।
हमारा काम और पारिवारिक जीवन भी प्रभावित होने लगेगा। इसलिए सुखी जीवन के लिए आवश्यक है कि समस्याओं का बोझ अपने सिर पर हमेशा नहीं लादे रखना चाहिए। समस्याएं सोचने से नहीं हल होतीं।
सोने से पहले सारे समस्यायुक्त विचारों को बाहर रख देना चाहिए। इससे आपको अच्छी नींद आएगी और आप सुबह तरोताजा रहेंगें।
Moral- सीख
समस्याओं को लेकर अधिक परेशान नहीं होना चाहिए। इससे हमारा नुकसान ही होता है।
दृढनिश्चय # प्रेरक प्रसंग
एक बार एक संत महाराज किसी काम से एक कस्बे में पहुंचे। रात्रि में रुकने के लिए वे कस्बे के एक मंदिर में गए। लेकिन वहां उनसे कहा गया कि वे इस कस्बे का कोई ऐसा व्यक्ति ले आएं, जो उनको जानता हो। तब उन्हें रुकने दिया जाएगा।
उस अनजान कस्बे में उन्हें कौन जानता था ? दूसरे मंदिरों और धर्मशालाओं में भी वही समस्या आयी। अब संत महाराज परेशान हो गए। रात काफी हो गयी थी और वे सड़क किनारे खड़े थे। तभी एक व्यक्ति उनके पास आया।
उसने कहा, “मैं आपकी समस्या से परिचित हूँ। लेकिन मैं आपकी गवाही नहीं दे सकता। क्योंकि मैं इस कस्बे का नामी चोर हूँ। अगर आप चाहें तो मेरे घर पर रुक सकते हैं। आपको कोई परेशानी नहीं होगी।
संत महाराज बड़े असमंजस में पड़ गए। एक चोर के यहां रुकेंगे। कोई जानेगा तो क्या सोचेगा ? लेकिन कोई और चारा भी नहीं था। मजबूरी में वो यह सोचकर उसके यहां रुकने को तैयार हो गए कि कल कोई दूसरा इंतजाम कर लूंगा।
चोर उनको घर में छोड़कर अपने काम यानी चोरी के लिए निकल गया। सुबह वापस लौट कर आया तो बड़ा प्रसन्न था। उसने स्वामी जी को बताया कि आज कोई दांव नहीं लग सका। लेकिन अगले दिन जरूर लगेगा।
चोर होने के बावजूद उसका व्यवहार बहुत अच्छा था। जिसके कारण संत महाराज उसके यहां एक महीने तक रुके। वह प्रत्येक रात को चोरी करने जाता। लेकिन पूरे माह उसका दांव नहीं लगा। फिर भी वह प्रसन्न था। उसे दृढ़ विश्वास था कि आज नहीं तो कल मेरा दांव जरूर लगेगा। पूरे एक माह बाद उसे एक बड़ा मौका हाथ लगा।
महात्मा जी ने सोचा कि यह चोर कितना दृढ़निश्चयी है। इसे अपने ऊपर अटूट विश्वास है। जबकि हम लोग थोड़ी सी असफलता से विचलित हो जाते हैं। अगर इसकी तरह दृढ़ निश्चय और विश्वास हो तो सफलता निश्चित मिलेगी।
Moral- सीख
यह प्रेरक प्रसंग हमें सिखाता है कि हमें असफलताओं से विचलित और निराश नहीं होना चाहिये। दृढ़ निश्चय और निरंतर प्रयास से सफलता अवश्य मिलती है।
सब में आत्मभाव
कोलकाता में हुगली जिले में एक मशहूर वकील थे। जिनका नाम शशिभूषण वंद्योपाध्याय था। वे बड़े उदार और दयालु व्यक्ति थे। एक बार वे जून के महीने की कड़कती धूप में एक किराए की गाड़ी में बैठकर शहर के विख्यात व्यक्ति के घर पहुंचे।
शशिभूषण जी को उनसे अत्यंत आवश्यक कार्य था। स्वागत सत्कार के बाद उस व्यक्ति ने पूछा, “इस भयंकर दोपहर में आपने इतनी दूर आने का कष्ट क्यों किया ? इस काम के लिए आप किसी नौकर को पत्र देकर भी भेज सकते थे।”
इस पर शशिभूषण जी ने उत्तर दिया, “मैंने पहले यही सोचा था। बल्कि मैंने पत्र लिख भी लिया था। लेकिन बाहर की प्रचंड गर्मी और लू देखकर किसी नौकर को भेजने का मेरा साहस नहीं हुआ। मैं तो गाड़ी में बैठकर आया हूँ। उस बेचारे को तो पैदल आना पड़ता। उसमें भी वही आत्मा है, जो मुझमें है।
सीख
हमे सभी को अपने जैसा ही सोचना चाहिए। जैसा सुख, आराम हम खुद के लिए चाहते हैं। वैसा ही हमें दूसरों के लिए भी सोचना चाहिए।
जरूरतमंद की सेवा सबसे बड़ी
एक वैद्य गुरु गोविंद सिंह के दर्शन हेतु आनन्दपुर गया। वहां गुरुजी से मिलने पर उन्होंने कहा कि जाओ और जरूरतमंदों को सेवा करो।
वापस आकर वह रोगियों की सेवा में जुट गया। शीघ्र ही वह पूरे शहर में प्रसिद्ध हो गया । एक बार गुरु गोविंद सिंह स्वयं उसके घर पर आए। वह बहुत प्रसन्न हुआ। लेकिन गुरुजी ने कहा कि वे कुछ देर ही ठहरेंगे।
तभी एक व्यक्ति भागता हुआ आया और बोला, “वैद्य जी, मेरी पत्नी की तबियत बहुत खराब है। जल्दी चलिए अन्यथा बहुत देर हो जायेगी। वैद्य जी असमंजस में पड़ गए। एक ओर गुरु थे, जो पहली बार उनके घर आये थे।
दूसरी ओर एक जरूरतमंद रोगी था। अंततः वैद्यजी ने कर्म को प्रधानता दी और इलाज के लिए चले गए। लगभग दो घण्टे के इलाज और देखभाल के बाद रोगी की हालत में सुधार हुआ। तब वे वहां से चले। उदास मन से उन्होंने सोचा कि गुरुजी के पास समय नहीं था। अबतक तो वे चले गए होंगे फिरभी वैद्यजी भागते हुए वापस घर पहुंचे। घर पहुंचकर उन्हें घोर आश्चर्य हुआ।
गुरुजी बैठे उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। वैद्यजी उनके चरणों पर गिर पड़े। गुरु गोविंद सिंह जी ने उन्हें गले से लगा लिया और कहा, “तुम मेरे सच्चे शिष्य हो। सबसे बड़ी सेवा जरूरतमंदों की मदद करना है।”
सीख
दीन दुखियों और जरूरतमंदों की सेवा सबसे पहले की जानी चाहिए।
महात्मा गांधी की नम्रता- prerak prasang in hindi
गुजरात के राजकोट में काठियावाड़ राज्य प्रजा परिषद का अधिवेशन हो रहा था। बापू अन्य बड़े नेताओं के साथ मंच पर बैठे थे। तभी उनकी निगाह दूर नीचे बैठे एक वृद्ध व्यक्ति पर पड़ी। उन्होंने तुरंत उन वृद्ध को पहचान लिया। वे बापू के प्राथमिक विद्यालय के अध्यापक थे।
बापू तुरंत मंच से उतरकर उनके पास पहुंचे और चरण छूकर प्रणाम किया। फिर वे वहीं उनके पैरों के पास बैठ गए। शिक्षक भावविभोर हो गए और बोले, “अब आप बहुत बड़े नेता हैं। आपका यहां बैठना अच्छा नहीं लगता। अब आप ऊपर मंच पर चले जाइये।”
बापू बोले, “आपके लिए तो मैं सदैव आपका शिष्य ही रहूंगा।” इसके बाद बापू पूरे कार्यक्रम में वहीं बैठे रहे। कार्यक्रम के समाप्त होने के बाद शिक्षक ने बापू को आशीर्वाद देते हुए कहा, “तुम जैसा विनम्र और अहंकाररहित व्यक्ति ही महान कहलाने का सच्चा अधिकारी है।”
सीख
विनम्रता, सादगी और अहंकाररहित जीवन जीने वाला ही महान बनता है।
अहंकार अज्ञानता का कारण
रूस में एक महान विचारक और दार्शनिक हुए हैं, जिनका नाम था- आस्पेंस्की। अपने प्रारम्भिक दिनों में वे स्वयं को एक महान विचारक और दार्शनिक मानने लगे थे। वे अन्य विचारकों को अपने प्रश्नों एवं तर्कों से निरुत्तर कर देते थे। एक बार वे प्रसिद्ध विचारक गुज़रिएफ के पहुंचे और उनसे भी दर्शन पर बहस करने और कुछ नया जानने की इच्छा प्रकट की।
गुज़रिएफ पहुंचे हुए संत और दार्शनिक थे। वे उनके मनोभावों को समझ गए। गुज़रिएफ बोले, “आस्पेंस्की ! मैं अपना और तुम्हारा समय नष्ट नहीं करना चाहता। इसलिए तुम्हें एक सादा कागज दे रहा हूँ। इसमें तुम जो कुछ जानते हो और जो नहीं जानते हो, दोनों लिख दो।
क्योंकि जो तुम पहले से जानते हो उस ओर चर्चा करना व्यर्थ है। जो तुम नहीं जानते हो, उसी पर चर्चा होगी।” बात एकदम सीधी थी। लेकिन आस्पेंस्की के लिए बड़ी कठिन हो गयी। वे चक्कर में पड़ गए। उन्हें ज्ञान का जितना अभिमान था। सब चकनाचूर हो गया।
वे सोचने लगे कि वे क्या नहीं जानते हैं ? पहले कुछ विषय दिमाग में आये फिर कुछ और अधिक। फिर और गहराई से सोचा तो और ज्यादा विषय प्रकट हुए। अंत में उन्हें लगा कि वे किसी विषय में गहराई से कुसद नहीं जानते।
अंततः उन्होंने कोर कागज गुज़रिएफ के चरणों में रख दिया और बोले, “महाराज मैं कुछ नहीं जानता। आपने मेरी आँखें खोल दी हैं।” गुज़रिएफ बोले, “ठीक है, तुमने जानने योग्य सबसे महत्वपूर्ण पहली बात जान ली है कि तुम कुछ नहीं जानते। यही ज्ञान की पहली सीढ़ी है। अब तुम्हें कुछ सिखाया बताया जा सकता है।”
सीख
सदैव सीखने के तैयार रहना चाहिए। कभी यह घमंड नहीं करना चाहिए कि मैं सब जानता हूँ।
अपरिग्रह# prerak prasang
एक बार राजा भोज एक जंगल के रास्ते से जा रहे थे। साथ में उनके राजकवि पंडित धनपाल भी थे। रास्ते में एक विशाल बरगद के पेड़ में मधुमक्खियों का एक बहुत बड़ा छत्ता लगा था। जो शहद के भार से गिरने ही वाला था।
राजा भोज ने ध्यान से देखा तो पाया कि मधुमक्खियां उस छत्ते से अपने हाथ पैर घिस रही हैं। उन्होंने राजकवि से इसका कारण पूछा। राजकवि बोले, “महाराज ! दान की बड़ी महिमा है। शिवि, दधीचि, कर्ण, बलि आदि अनेक दानियों का नाम उनके न रहने के बाद भी चल रहा है।
जबकि केवल संचय करने और दान न करने वाले बड़े बड़े राजा महाराजाओं का आज कोई नाम लेने वाला भी नहीं है। इन मधुमक्खियों ने भी आजीवन केवल संचय ही किया है। कभी दान नहीं किया।
इसलिए आज अपनी संपत्ति को नष्ट होते देखकर इन्हें दुख हो रहा है। इसीलिए ये अपने हाथ पैर घिस रही हैं।”
सीख
आवश्यकता से अधिक संचय हमेशा दुख का कारण होता है।
भलाई का जज्बा
एक बार एक राजा ने एक कैदी को मौत की सजा सुनाई। सजा सुनकर कैदी आप खो बैठा। वह बादशाह को गालियां देने लगा। कैदी दरबार के आखिरी कोने में खड़ा था। इसलिए उसकी गालियां बादशाह को सुनाई नहीं पड़ रहीं थीं।
इसलिए बादशाह ने अपने वजीर से पूछा कि वह क्या कह रहा है ? इस पर वजीर ने बताया, “महाराज, कैदी कह रहा है कि वे लोग कितने अच्छे होते हैं जो अपने क्रोध को पी जाते हैं और दूसरों को क्षमा कर देते हैं।”
यह सुनकर बादशाह को दया आ गई और उसने कैदी को माफ कर दिया। लेकिन दरबारियों में एक व्यक्ति था जो वजीर से जलता था। उसने कहा, “महाराज, वजीर ने आपको गलत बताया है। “
“यह व्यक्ति आपको गंदी गंदी गालियां दी रहा है। आप इसको माफ मत करिए।” उसकी बात सुनकर बादशाह गुस्सा हो गया और दरबारी से बोला-
“मुझे वजीर की बात ही सही लगी। क्योंकि इसने झूठ भी बोला है तो किसी की भलाई के लिए। इसके अंदर भलाई का जज्बा तो है। जबकि तुम दरबार में रहने के योग्य नहीं हो। तुम्हें तुरंत बेदखल किया जाता है।”
सीख- Moral
हमेशा अपने व्यवहार और वाणी से दूसरों की भलाई के बारे में ही सोचना चाहिए।
आलोचना
अमेरिका के सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के विषय में उनके विरोधी प्रायः कुछ न कुछ अखबारों में प्रकाशित करवाते रहते थे। किंतु लिंकन कभी उनका प्रतिउत्तर नहीं देते थे।
एक दिन उनके एक मित्र ने कहा, “आपके विरोधी इतना कुछ आपके बारे में लिखते हैं। आप उनका जवाब क्यों नहीं देते ? आपको भी जवाब देब चाहिए।”
लिंकन ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “मित्र ! यदि मैं उनका जवाब देने लगूंगा तो मेरा सारा समय इसी में निकल जायेगा। फिर मैं कोई जनकल्याण का कार्य नहीं कर पाऊंगा। जीवन के अंत में यदि मैं अपने कार्यों के द्वारा बुरा साबित होता हूँ तो मेरे द्वारा दी गयी किसी सफाई का कोई मूल्य नहीं होगा।
“यदि मैं एक अच्छा व्यक्ति साबित होता हूँ तो फिर इन आलोचनाओं का कोई मूल्य नहीं होगा। इसलिए मैं इनपर ध्यान दिए बिना चुपचाप अपना काम करता हूँ।”
सीख
यह प्रसंग सिखाता है कि हमें अपने कार्यों के द्वारा लोगों की आलोचनाओं का जवाब देना चाहिए।
ज्ञान की खेती
वाराणसी प्रवास के समय एक बार भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के साथ एक किसान के यहां भिक्षा मांगने पहुंचे। किसान ने उन्हें घूरकर देखा और कड़े शब्दों में कहा-
“मैं एक किसान हूँ। मैं कड़ी मेहनत करके अपनी आजीविका कमाता हूँ। आप बिना परिश्रम के भोजन क्यों प्राप्त करना चाहते हैं ?”
भगवान बुद्ध ने शांत स्वर में उत्तर दिया, “भाई मैं भी एक किसान हूँ। मैं ज्ञान की खेती करता हूँ। आत्मा ही मेरा खेत है। मैं ज्ञान के हल से जुताई करके उसमें श्रद्धा के बीज बोता हूँ। साधना एवं तपस्या के जल से उनकी सिंचाई करता हूँ। सत्य और अहिंसा के औजार से उनकी निराई करता हूँ। यदि तुम अपनी खेती का कुछ भाग मुझे दे दो तो मैं भी अपनी खेती का कुछ भाग तुम्हें दे दूंगा।”
किसान महात्मा बुद्ध की बात से बहुत प्रभावित हुआ और उनका शिष्य बन गया।
सीख
ज्ञान के लिए भी परिश्रम एवं साधना करनी पड़ती है।
संयम एवं जिम्मेदारी- prerak prasang in hindi
मशहूर वाहन कम्पनी फोर्ड के मालिक हेनरी फोर्ड को अपनी कार के लिए एक ड्राइवर की आवश्यकता थी। तीन ड्राईवरों को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। सबसे उनकी विशेषता पूछी गयी।
पहले व्यक्ति ने बताया कि वह भीड़ में भी सौ मील की रफ्तार से गाड़ी चला सकता है। दूसरे ने बताया कि वह छह फुट के गड्ढ़ों को भी आसानी से पार कर सकता है।
जबकि तीसरे व्यक्ति ने उत्तर दिया, “मैं चालीस से साठ मील की रफ्तार से ही गाड़ी चलाता हूँ। क्योंकि मैं स्वयं अपनी एवं अपने मालिक की जान को खतरे में नहीं डालता।”
शायद यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि तीसरे व्यक्ति को ही चुना गया। क्योंकि संयम एवं जिम्मेदारी पूर्ण व्यवहार भी एक बड़ी विशेषता है।
सीख
हर जगह हमें व्यवहार में संयम एवं जिम्मेदारी रखनी चाहिए।
बीस डॉलर
अमेरिका के एक धनी व्यक्ति के पास बेंजामिन फ्रेंकलिन नामक एक व्यक्ति पहुंचा। उसने धनी व्यक्ति की मेज पर बीस डॉलर रखते हुए कहा, “महोदय, मेरे बुरे समय में आपने मुझे बीस डॉलर दिए थे। जिनसे मेरी बहुत सहायता हुई थी।”
“अब मैं इस स्थिति में हूँ कि आपके पैसे लौटा सकूं। इसलिए मैं यह पैसे लेकर आया हूँ। आप इन्हें रख लीजिए। वह धनी व्यक्ति उन पैसों को भूल चुका था। अब उसे याद आया, लेकिन उसने पैसे वापस लेने से मना कर दिया।
उसने कहा, “बेंजामिन, ये बीस डॉलर मेरे लिए कोई बड़ी कीमत नहीं रखते। लेकिन ये एक जरूरतमंद के लिए बहुत कीमती हैं। इसलिए तुम इन्हें ले जाओ और किसी जरूरतमंद की मदद कर देना। उससे कहना कि वह भी समर्थ हो जाने पर इन बीस डॉलरों से किसी की मदद कर दे।”
बेंजामिन ने वैसा ही किया और आज वे बीस डॉलर पूरे अमेरिका में घूम रहे हैं और जरूरतमंदों के लिए राहत बन रहे हैं।
सीख
समय पर की गई छोटी मदद भी बहुत उपयोगी होती है।